व्यग्रता, उग्रता और समग्रता

May 15th, 2023 / 0 comments

- जगमोहन सिंह राजपूत

दीर्घकालीन परिप्रेक्ष्य में समाधान के लिए शिक्षा की ओर ही जाना होगा। प्रारंभिक वर्षों में सभी बच्चों को सभी पंथों की समानता के पाठ पढ़ने होंगे, भिन्नताओं का आदर करना सीखना होगा।

पिछले कुछ दशक में आतंकवाद और पांथिक कट्टरवाद जिस तेजी से फैला है, उससे सारे विश्व में व्यक्तिगत और सामूहिक असुरक्षा के इतने आयाम उभरे हैं कि हर देश को सुरक्षा पर अतिरिक्त और अनावश्यक बोझ उठाना पड़ रहा है। जो देश एक जाति, पंथ, भाषा, संस्कृति में रहने के आदी थे, उन्हें अब अनेक संस्कृतियों, भाषाओं, पंथों और अपेक्षाओं के जनसंख्या समूहों के साथ रहना सीखना पड़ रहा है। ये स्थितियां मानव जीवन में असहजता उत्पन्न करती हैं, पारस्परिक अविश्वास को लगातार बढ़ा रही हैं। अधिकांश युवाओं को अपना भविष्य असुरक्षित, अनिश्चय और निराश से भरा दिखता है। नहीं तो क्या कारण है कि लगभग हर प्रकार की विविधता की स्वीकार्यता के लिए सराहा जाने वाला भारत आज तक यह नहीं सीख पाया कि धार्मिक जुलूस बिना किसी तनाव या हिंसा के संपन्न हो सकें?

भारत ही दिखा सकता है विश्व स्तर पर भाईचारा स्थापित करने का रास्ता
पश्चिम के कई विद्वानों ने माना है कि अगर विश्व स्तर पर भाईचारा स्थापित करना है तो उसका रास्ता भारत ही दिखा सकता है। इसी देश ने विश्वबंधुत्व की भावना को साकार करके दिखाया। इस संस्कृति में हिंसा, अत्याचार या किसी पंथ विशेष के प्रति किसी भी प्रकार की दुर्भावना का कोई स्थान नहीं था। भारत से अपेक्षा की जा रही है कि आज की विकट वैश्विक परिस्थितियों में वह अपना उत्तरदायित्व मान कर शांति का रास्ता दिखाए। इसके लिए उसे सबसे पहले अपने घर सामाजिक सद्भाव और पांथिक समरसता को पूरी तरह स्थापित करने का उदाहरण प्रस्तुत करना होगा। किसी भी विद्यार्थी, व्यक्ति या समुदाय में दृष्टिकोण परिवर्तन कराने का सबसे सशक्त उपाय है उनके समक्ष अपेक्षित आचरण का उदाहरण प्रस्तुत करना ।

संवाद के बिना पूर्वाग्रह बढ़ता है, जो हिंसा को जन्म देता है
कहीं भी और कभी भी समस्याओं के समाधान का सबसे सशक्त रास्ता निर्मल संवाद ही होता है। इसमें जब पूर्वाग्रह हावी हो जाते हैं, तब यह मात्र एक ढकोसला बन कर रह जाता और हिंसा तथा उग्रता को जन्म देता है। कितने ही दशकों से लगातार चल रही परमाणु निरस्त्रीकरण पर बैठकों से क्या कुछ भी सार्थक निकल सका? इनमें भाग लेने वाले देश अधिक से अधिक मारक क्षमता वाले हथियारों पर शोध, निर्माण और परीक्षण करते रहे हैं। एक साल से अधिक समय से चल रहा रूस-यूक्रेन युद्ध उन्हें ऐसा ही एक अवसर प्रदान कर रहा है। अधिक उपभोग, अधिक उत्पादन, अधिक बिक्री, अधिक जीडीपी, और भी बहुत कुछ! यूक्रेन के नागरिकों की मनस्थिति की कल्पना करिए, वे किस घुटन में जीवित होंगे, हर पल कितनी ही आशंकाएं उन्हें घेरे रहती होंगी!

सामान्य नागरिक इस स्थित से निकलने को कितना व्यग्र होगा, युवाओं में यह व्यग्रता दबी हुई उग्रता में परिवर्तित हो चुकी होगी। अफगानिस्तान, म्यांमा जैसे देशों में युवाओं के जीवन में जो कांटे बोए गए हैं, वे तो निश्चित ही तीव्र आक्रोश और उग्रता पैदा करेंगे ही। मजहबी कट्टरपन से उत्पन्न फिदायीन जैसी प्रवृत्तियां वैश्विक शांति स्थापना के प्रयासों में जबर्दस्त व्यवधान उत्पन्न कर रही हैं। यूरोप के देशों में विविधताओं के प्रति आशंकाओं के कारण जो स्थितियां उत्पन्न हो रही हैं, वे भी समग्रता और सद्भाव बढ़ाने में नकारात्मक योगदान ही कर रही हैं ।
इस समय वैश्विक स्थिति यह है कि उत्पादन, व्यापार और बाजार के इर्द-गिर्द आर्थिक स्थिति सुधारने पर ही सभी देशों का ध्यान केंद्रित है। अगर शिक्षा व्यवस्थाएं केवल 'एक बड़े पैकेज' पर ध्यान केंद्रित करती रहेंगी, तो नैतिकता, संवेदना, सहयोग, समग्रता जैसे व्यक्तित्व विकास के परम आवश्यक तत्त्व केवल पुस्तकों में रह जाएंगे ! विकास और वृद्धि के लिए एक मजबूत अर्थतंत्र आवश्यक है, लेकिन हर व्यक्ति की मूलभूत मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लक्ष्य को पीछे छोड़कर नहीं । वृद्धि और विकास ही प्रगति की संपूर्णता के द्योतक नहीं हो सकते, जब तक कि उसमें मानवीय तत्त्व और विशेषकर आध्यात्मिक चेतना से परिचय सम्मिलित न हो।

विकास की वर्तमान अवधारणा में धनाढ्य होना या उसके लिए प्रयास करना अपराध नहीं माना जाता। बड़े उत्पादक संयंत्र चाहिए, रोजगार चाहिए, लगभग हर महत्त्वपूर्ण क्षेत्र में निवेश चाहिए, जिसके लिए सरकारों पर आश्रित रहने के नकारात्मक परिणाम बड़े स्तर पर देखे जा चुके हैं। भारत ने अपनी उन नीतियों को 1990-91 में बदला। आज देश में खरबपतियों की संख्या लगातार बढ़ रही है, इनमें से कुछ वैश्विक सूची में शिखर या उसके करीब तक पहुंच गए। मगर इस स्थिति के अन्य पहलू भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं ।
कोरोना काल के समय प्रारंभ की गई मुफ्त राशन की व्यवस्था बहुत कुछ कहती है। देश में बड़े- बड़े अस्पताल बने, विदेश से लोग भारत में चिकित्सा कराने आने लगे, लेकिन इनमें से ऐसे कितने हैं, जिनके संबंध में कहा जा सके कि वहां व्यवस्था केवल व्यापार पर आश्रित नहीं है। उस व्यक्ति की व्यथा समझिए, जो उनके अंदर प्रवेश नहीं कर पाता है। विकास की अवधारणा में पंक्ति के अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति की मूलभूत आवश्यकताओं की अनदेखी आंतरिक व्यथा को जन्म देती है, जो उग्रता से बहुत दूरी नहीं रखती।
किसी भी व्यग्र व्यक्ति या समूह का किसी भी समय उग्र हो जाना स्वाभाविक प्रतिक्रिया है। हिंसा के वैश्विक स्तर पर फैलाव को इस निगाह से भी विश्लेषित करना होगा। हर तरफ जिस तेजी से अप्रत्याशित परिवर्तन हो रहे हैं, उसमें अनेक प्रकार की नई समस्याओं तथा मनुष्य-जनित आपदाओं से सामना तो होना ही है। इसमें सफलता तभी मिलेगी जब सभी देश यह स्वीकार करें कि हर व्यक्ति को विविधताओं की स्वीकार्यता के साथ रहना सीखना होगा।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद बनी अनेक अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से अपेक्षा थी कि वे समस्याओं के समाधान समग्रता के आधार पर निकाल सकेंगी और राष्ट्रीय स्तर की समस्याओं के समाधान में भी प्रत्येक देश की सरकार के साथ सहयोग कर सकेंगी। यूनेस्को और यूनीसेफ जैसी संस्थाएं शांति स्थापना के प्रयासों में सीमित स्तर पर सहायता करने का प्रयास कर रही हैं, लेकिन सुरक्षा परिषद जैसी संस्थाएं आज भी साम्राज्यवादी तरीके अपनाए हुई हैं।
अगर वैश्विक स्तर पर समग्रता के लिए ऐसे परिवर्तन आवश्यक हैं, तो जमीनी स्तर पर भी बहुत कुछ किया जाना है। आज भी ऐसी शिक्षा व्यवस्थाएं हैं, जो किसी पंथ, नस्ल या जाति विशेष की श्रेष्ठता के पाठ प्रारंभिक वर्षों में पढ़ाती हैं। क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है कि इक्कीसवीं सदी में भी तरुणों को फिदायीन बनाने की नियमित प्रक्रियाएं चालू हैं। सार्वभौमिक शिक्षा के महत्त्व को मनुष्य जाति समझ चुकी है और इसके लिए बीसवीं सदी में वैश्विक स्तर पर सराहनीय संगठित प्रयास किए गए, जो अब भी जारी हैं। इससे अरबों लोगों में एक सम्मानपूर्ण मानवीय जीवन जीने की उत्कंठा बढ़ी है। सामाजिक स्तर पर सदियों से कुछ समूहों की दुर्भावना झेलते रहे समुदाय अब उसके लिए तैयार नहीं हैं। इस दिशा में व्यावहारिक स्तर पर अब भी बहुत कुछ बदलना बाकी है।
ज्ञान समाज और बौद्धिक आर्थिकी ही नहीं, कृत्रिम बुद्धिमत्ता के उभरते स्वरूप से आच्छादित विश्व में जो देश आंतरिक भेद-विभेद में उलझे रहेंगे, वे निश्चित ही पीछे रह जाएंगे। इस स्थित का विश्लेषण कर उसके समाधान के लिए त्वरित उपाय आवश्यक हैं। दीर्घकालीन परिप्रेक्ष्य में समाधान के लिए शिक्षा की ओर ही जाना होगा। प्रारंभिक वर्षों में सभी बच्चों को सभी पंथों की समानता के पाठ पढ़ने होंगे, भिन्नताओं का आदर करना सीखना होगा। यही सबसे सशक्त समाधान तक पहुंचने का रास्ता है। यही समग्रता का आधार बन सकता है।





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