
अपनत्व से अपरिचय
January 2nd, 2023 / 0 comments
शिक्षा
प्रगति और विकास की तेजी के इस दौर में लगातार सीखना अब केवल स्कूलों और महाविद्यालयों तक सीमित नहीं है। इसके क्षितिज का विस्तार सार्वभौमिक है, संपूर्ण राष्ट्र को सीखते रहना है।
– जगमोहन सिंह राजपूत
सात-आठ दशक पहले जितने भी देश उपनिवेशवाद से मुक्त हुए, वे सब उस समय विकासशील या निम्न विकासशील देश कहलाए। लगभग इन सबके समक्ष दो मुख्य चुनौतियां थीं। पहली, अपने देश के एक विशिष्ट वर्ग को, जो पहले से ही सत्तातंत्र चलाता आ रहा था, उपनिवेशवादी मानसिकता से कैसे मुक्त करें। दूसरी, विकास की कौन-सी अवधारणा अपनाई जाए। पूर्व-उपनिवेशवादी शक्तियां इन देशों में अपनी बनाई विकास पद्धतियों को नए कलेवर में जारी रखना चाहतीं थीं। वे सहायता के लुभावने प्रस्ताव प्रस्तुत कर रहे थे। आर्थिक सहायता के अंतर्गत वे अपने विशेषज्ञ तथा योजनाएं और उपकरण तक देने को प्रस्तुत थे ! भारत की स्वतंत्रता के बाद के तीन – चार दशक इसका अत्यंत सटीक उदहारण रहे हैं। सत्ता से बाहर अनेक विद्वत जन, विशेषकर वे जो गांधी को समझाते और उन्हें भुलाने को तैयार नहीं थे, इस स्थिति से चिंतित थे । विचारक धर्मपाल ने तीसरी पंचवर्षीय योजन पर संसद में हुए संवाद का अध्ययन कर अपनी चिंता कुछ इस प्रकार प्रकट की थी: ‘जिन लोगों को लेकर हम सपने बुनते, योजनाएं बनाते हैं, वे तस्वीर में हैं कहां? हम जिस भारत का पुनर्निर्माण करना चाहते हैं, उसमें श्रमिक या दिहाड़ी मजदूर कितने और कहां शामिल हैं?’ इस अलगाव के कारण अत्यंत गहरे हैं। उन्हें समझने के लिए भारत की आत्मा के निकट जाना होगा। इस आत्मा को जगाना पड़ेगा। बड़े बांध और स्टील के कारखाने निर्मित करने के पहले हमें भारत के उन लोगों जिन्हें अज्ञानी और अशिक्षित माना जाता है। और ‘टीमिंग मिलियन्स’ कह कर संबोधित किया जाता है की आत्मा को जागृत करना होगा। इसी में निहित भारत के लिए विकास की उपयुक्त अवधारणा को बाद के दशकों में शिक्षाविद दौलत सिंह कोठारी भी अपने ढंग से प्रस्तुत करते थे:
‘भारत के विकास के मूल तत्त्व हैं- एसटीपीजी- साइंस, टेक्नोलाजी, प्रोडक्शन, और गांधी!’ अगर देश ने प्रारंभिक वर्षों में चरित्र निर्माण पर जोर दिया होता, तो संसाधनों की कमी के कारण भले भाखड़ा नांगल, भिलाई और बोकारो के निर्माण में देर होती, लेकिन जो शिक्षित युवा वहां या अन्य किसी क्षेत्र में कार्यभार संभालते, वे देश के प्रति समर्पित होते। लोगों के प्रति अपनत्व का भाव रखते, ईमानदारी का जीवन जीते और अपरिग्रह से इतने दूर नहीं हो जाते कि उसे भूल ही जाएं। सड़कें पहली बरसात में बह नहीं जातीं, नए पुल कुछ महीनों में ही ढहते नहीं! उस स्थित की कल्पना कीजिए, जिसमें गांव से शहर आने वाले बीमार व्यक्ति को अस्पताल में समय से डाक्टर मिलते और उसे सारी दवाइयां वहीं पर उपलब्ध करा दी जातीं! कचहरी में, नगरपालिका कार्यालय में हर व्यक्ति यह सोच कर न जाता कि उसे सुविधा शुल्क तो देना ही पड़ेगा। पुलिस विभाग के किसी भी व्यक्ति को देखकर अपनत्व और सुरक्षा का भाव जागृत होता ! यह अलभ्य लक्ष्य नहीं है। अगर व्यक्तित्व विकास और कार्य संस्कृति को प्रारंभिक वर्षों से ही अपेक्षित प्राथमिकता दी जाए, तो अब भी एक दशक के अंदर क्रांतिकारी परिवर्तन संभव है। स्वामी विवेकानंद ने व्यक्ति और भ्रातृत्व का अर्थ वसुधैव कुटुम्बकम् के संदर्भ में हमें समझाया थाः ‘केवल एक ही ईश्वर की पूजा होनी है: मनुष्य की आत्मा और भौतिक शरीर! जानवर का शरीर भी मंदिर है, लेकिन मनुष्य सबसे ऊपर है।’ उन्होंने इसके आगे यह भी कहा कि जब तक लाखों (करोड़ों) लोग भूख तथा अज्ञान के अंधकार में रहने को मजबूर हैं, तब तक मैं हर शिक्षित व्यक्ति को विश्वासघाती समझता हूं, जो उनकी ओर ध्यान नहीं देता है।
पश्चिम की सभ्यता के संबंध में ‘हिंद स्वराज’ में व्यक्त की गई आशंकाएं आज हर ओर उपस्थित दिखाई देती हैं। आज की युवा पीढ़ी के समक्ष वैश्वीकरण, उदारवाद और व्यापारीकरण से उत्पन्न चकाचौंध में इतना कुछ आकर्षक दिखाई देता है, जिससे बाहर हट कर यह देख पाना अत्यंत कठिन हो गया है कि उसमें कितना कुछ केवल मृग मरीचिका है, और उसकी आवश्यकता, व्यावहारिकता तथा उपयोगिता कितनी सीमित है। इस समय सामान्य मानव जीवन में असुरक्षा, अविश्वास, अशांति, प्रतिस्पर्धा, संग्रहण के प्रति आकर्षण और उससे जनित व्यावहारिक नकारात्मकता की उपस्थिति के कारण व्यग्रता और उग्रता हर ओर दिखाई देते हैं। कुल मिलकर व्यक्ति के आचरण को पथभ्रष्ट करने के लिए जैसा सम्मोहक वातावरण इस समय बना हुआ है, वैसा शायद ही पहले कभी रहा हो ! ऐसी स्थिति में शांति और सद्भावना की ओर तेजी से आगे बढ़ने की आवश्यकता निर्विवाद है। परिवर्तन के कुछ पक्ष अगर गहराई से विश्लेषित किए जाएं, तो स्थिति अधिक स्पष्ट होती जाएगी। शिक्षा के प्रति बदले हुए दृष्टिकोण और उसके देश की संस्कृति से अलगाव ने उसे पूरी तरह जीवन में केवल अधिक धनोपजन और समय वृद्धि के लक्ष्य तक के साथ उसमें लगातार सीमित कर दिया है। भारत जैसे देश में भी शिक्षा को आत्मबोध तथा आध्यात्मिकता के सामान्य परिचय तक से अलग कर दिया गया था। आशा की किरण यही है कि अब इसकी कमी के परिणामों की नकारात्मकता से सभी परिचित हो चुके हैं, और शिक्षा नीतियों में आवश्यक परिवर्तन किए जा रहे हैं।
प्रगति और विकास की तेजी के इस दौर में लगातार सीखना अब केवल स्कूलों और महाविद्यालयों तक सीमित नहीं है। इसके क्षितिज का विस्तार सार्वभौमिक है, संपूर्ण राष्ट्र को सीखते रहना है। भारत की हरित क्रांति इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, रास्ता वैज्ञानिकों ने दिखाया, मगर व्यावहारिक परिवर्तन के लिए सदियों से परंपरागत ढंग से कृषि कार्य करने वाला किसान दृष्टिकोण परिवर्तन को तैयार हुआ, यह गतिशीलता की स्वीकार्यता का जबर्दस्त उदाहरण उस वर्ग में बना, जिसे पश्चिमी शिक्षा से प्रभावित विशिष्ट वर्ग जाहिल समझाता था। वैसा ही एक विशाल दृष्टिकोण परिवर्तन भारत के अध्यापकों और उसकी शिक्षा- व्यवस्था में लाना होगा। ऐसे प्रयास किए गए हैं, नीतिगत स्तर पर ही नहीं, अनेक संस्थाओं ने भी इस दिशा में अत्यंत महत्त्वपूर्ण अनुभव प्राप्त किए हैं। शिक्षा संविधान की समवर्ती सूची में शामिल है। इसलिए राष्ट्रीय स्तर पर कोई देशव्यापी पहल तभी सफल होगी जब केंद्र और राज्य सरकारें एकमत होकर नए उत्साह से ऐसे आंदोलन का सूत्रपात करें, जो अध्यापकों और उनके विभागीय अधिकारियों को उनके राष्ट्र निर्माण के कार्य के सूत्रधार होने को स्पष्ट करे, उनका मनोबल बढ़ाए तथा उन्हें आश्वस्त करे कि उनकी अनिश्चितताओं तथा आशंकाओं को दूर करनें में देरी न होने की कारगर व्यवस्था उपलब्ध होगी।
प्राचीन भारत का वैश्विक सम्मान उसकी ज्ञानार्जन की सशक्त परंपरा, अध्यात्म की समझ, वैचारिक विविधता का सम्मान तथा वैश्विक मानवीय बंधुत्व के दर्शन के कारण ही रहा है। यह सब इसलिए संभव हो सका कि इसमें संलग्न वर्ग जीवन में अपरिग्रह को पूरी तरह अपनाता था, सत्ता ऐसी संस्थाओं को न केवल आवश्यक भौतक संसाधन उपलब्ध कराती थी, बल्कि उसका सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान ऐसे सभी तपस्वी व्यक्तियों तथा आचरण- संवर्धन केंद्रों के प्रति असीम सम्मान की अभिव्यक्ति बनाए रखने का था। आज तो ज्ञान- साम्राज्य का युग है, लेकिन विद्वत – वर्ग तथा सत्ता के बीच के संबंध भी पहले जैसे नहीं रहे हैं। सामान्य जन को नई उर्जा प्रदान कर सशक्त और सार्वभौमिक बनाने का बीड़ा भी देश के जाने-माने वैज्ञानिकों, शिक्षा शास्त्रियों तथा लेखकों और अपनी सर्जनात्मक प्रतिभा के लिए सराहे गए वर्ग को राष्ट्रीय उत्तरदायित्व के रूप में स्वीकार कर उठाना चाहिए।
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