अस्थायी अध्यापकों का अनावश्यक चलन

February 21st, 2023 / 0 comments

प्रत्येक सजग सक्रिय और जागरूक देश अपनी शिक्षा व्यवस्था को लगातार सुधारने का प्रयास करता है। ऐसा सुधार तभी संभव हो पाता है जब सरकारें और संस्थान अध्यापकों को अपेक्षित सम्मान देते हैं। उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति कर उन्हें उचित परिवेश में कार्य करने की स्वायत्तता प्रदान करते हैं।

जगमोहन सिंह राजपूत

दिल्ली सरकार में शिक्षा मंत्री के एक हालिया बयान से मुझे बड़ी हैरानी हुई है। वह चाहते हैं कि दिल्ली विश्वविद्यालय यानी डीयू के 28 महाविद्यालयों में नियमित अध्यापकों की नियुक्तियों को तुरंत रोक दिया जाए, क्योंकि इससे उनकी सरकार पर आर्थिक बोझ बढ़ेगा। बोझ तो बढ़ेगा, क्योंकि नियमित अध्यापकों को अधिक वेतन देना होगा जो दिल्ली सरकार नहीं चाहती है। जब महाविद्यालय किसी प्रकार चल ही रहे हैं तो दिल्ली सरकार इस अतिरिक्त बोझ को क्यों उठाए? क्या किसी आधुनिक देश में ऐसे संकुचित सोच को स्वीकार किया जा सकता है? यह वही शिक्षा मंत्री हैं, जिन्हें लगता है कि दिल्ली की शिक्षा में सुधार का रास्ता फिनलैंड से होकर जाता है। अतः सभी अध्यापकों को प्रशिक्षण के लिए वहीं जाना चाहिए। नि:संदेह फिनलैंड की शिक्षा व्यवस्था की वैश्विक सराहना होती है। उसके पीछे के कारक समझना आवश्यक है। वहां शिक्षक ही एकमात्र ‘वीआइपी’ होता है। फिनलैंड में शिक्षक प्रशिक्षण संस्थान की प्रवेश परीक्षा में उत्तीर्ण होना हर युवा का वैसा ही सपना होता है जैसा अपने यहां यूपीएससी परीक्षा में सफलता पाना। वहां अध्यापकों का वेतन किसी अन्य पेशे में कार्यरत पेशेवर से कम नहीं होता। इस स्थिति की तुलना दिल्ली सरकार की उस चिंता से कीजिए जो उसने अस्थायी अध्यापकों के स्थान पर नियमित नियुक्तियों से पड़ने वाले आर्थिक बोझ पर जताई है। जबकि शिक्षण संस्थानों में नियमित अध्यापकों की कमी विद्यार्थियों के साथ अन्याय होने के साथ ही देश के प्रति भी घोर लापरवाही है।

प्रत्येक सजग, सक्रिय और जागरूक देश अपनी शिक्षा व्यवस्था को लगातार सुधारने का प्रयास करता है। ऐसा सुधार तभी संभव हो पाता है जब समग्र तंत्र यानी सरकारें और संस्थान अध्यापकों को अपेक्षित सम्मान देते हैं। उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति कर उन्हें उचित परिवेश में कार्य करने की स्वायत्तता प्रदान करते हैं। स्पष्ट है कि फिनलैंड का दौरा करने से ही शिक्षा की समझ बढ़ने और उसमें सुधार की संभावना नहीं। इससे भी अधिक चिंताजनक यह है कि अध्यापकों के रिक्त पद भरने और विशेषकर नियमित प्राचार्य की नियुक्ति की आवश्यकता की महत्ता विदेशी दौरों के बाद भी नहीं समझी गई।

दरअसल केंद्र सरकार ने केंद्रीय विश्वविद्यालयों में नियुक्तियों को तेज करने का निर्देश दिया है और दिल्ली विश्वविद्यालय उसका ही पालन कर रहा है। हालांकि, कई स्तरों पर नियुक्तियों का अधिकार राज्य सरकारों के पास है, जिनसे केंद्र केवल अनुरोध कर सकता है। ऐसे में केंद्र द्वारा पोषित और संचालित केंद्रीय विश्वविद्यालयों को अकादमिक नियुक्तियों में अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करने का उत्तरदायित्व निभाना चाहिए। इसके साथ ही इन विश्वविद्यालयों को प्राध्यापकों के चयन में पूर्ण पारदर्शिता तथा प्रत्याशियों की प्रतिभा के सम्मान पर सभी का विश्वास भी अर्जित करना चाहिए।

इस समय दिल्ली विश्वविद्यालय में सभी स्तरों पर अध्यापकों की तेजी से हो रही नियमित नियुक्ति की प्रशंसा दिल्ली में नहीं, बल्कि पूरे देश के उच्च शिक्षण संस्थानों में हो रही है। यहां तमाम युवा वर्षों से अस्थायी तौर पर नियुक्त थे। वे प्रतिवर्ष नियुक्ति के लिए नए साक्षात्कार का सामना कर पढ़ा रहे थे। यह स्थिति अस्वीकार्य थी। परिस्थिति कितनी कष्टकर हो सकती है उसका एक उदाहरण वह युवा है, जिसका चयन 2002 में एक राष्ट्रीय संस्था में प्रवक्ता के पद पर हुआ था। उसने पारिवारिक परिस्थितिवश परिवार को छोड़कर जाना स्वीकार नहीं किया, तब से लगातार अस्थायी अध्यापक के रूप में अध्यापन करता रहा। कई वर्ष बाद उसे अब उसी पद पर नियुक्ति मिली है। यह बीस वर्ष कितनी अनिश्चितता तथा तनाव में गुजरे होंगे, इसका अनुमान भुक्तभोगी ही लगा सकता है। इस प्रक्रिया से जुड़ा तंत्र नहीं समझ पाता कि ऐसे हजारों युवाओं की बौद्धिक क्षमता को कुंद करने वालों ने राष्ट्र के प्रति भी घोर अपराध किया है। बीस वर्षों में जो व्यक्ति आपनी प्रतिभा को निखार सकता था, शोध एवं नवाचार में योगदान दे सकता था, परिवार के प्रति अपने कर्तव्य निभा सकता था, उसे भविष्य की अनिश्चितता में धकेल देने वाले कौन लोग हैं और वे उन पदों पर रहकर अपनी अक्षमता का प्रदर्शन क्यों करते रहे?

अभी तक विश्वविद्यालयों में अध्यापन कार्य के लिए डाक्टरेट उपाधि महत्वपूर्ण अर्हता रही है। इस उपाधि की प्राप्ति के दौरान शोधार्थी शोध के मर्म को समझता है। समय के साथ उसके शोध की दिशा और स्तर भी निश्चित होते जाते हैं। यह समय यदि निराशाजनक परिस्थितियों में बिताना पड़े तो युवाओं के विचारों, संकल्पना-शक्ति, जिज्ञासा और रचनात्मकता को शिथिल कर देता है। जबकि यही वह समय होता है जब देश अपने युवाओं से नवाचार, शोध और सृजन में आगे आकार राष्ट्रीय बौद्धिक संपदा में वृद्धि करने की अपेक्षा करता है।

पिछली सदी के सातवें दशक के आसपास भारतीय युवाओं ने अपनी बौद्धिक क्षमता की ओर पूरी दुनिया का ध्यान खींचा, जब उन्होंने अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा में बौद्धिक, वैज्ञानिक एवं तकनीकी नवाचार में जबरदस्त योगदान दिया। यह सिलसिला सिलिकन वैली में भारतीयों के छा जाने तक जारी है। स्मरण रहे कि पिछली सदी के सातवें-आठवें दशक तक उच्च शिक्षण संस्थानों में शिक्षकों के पद रिक्त नहीं रहते थे। अध्यापकों के पास विद्यार्थियों की समस्याओं के समाधान का समय रहता था। चर्चा-परिचर्चा के लिए समय होता था। जबकि अस्थायी अध्यापकों के बढ़ते चलन ने न केवल पढ़ाई की स्थिति को खराब किया, बल्कि शोध की गुणवत्ता को भी क्षति पहुंचाई है।

मुझे विश्वास है कि दिल्ली विश्वविद्यालय अपनी नियुक्ति प्रक्रिया में किसी भी दवाब या अनावश्यक हस्तक्षेप को स्वीकार नहीं करेगा। बेहतर हो कि दिल्ली सरकार फिनलैंड की शिक्षा व्यवस्था के सार तत्व को समझकर ऐसी व्यवस्था करेगी जिसमें अध्यापकों को प्रत्येक स्तर पर सम्मान मिले। साथ ही साथ वह दिल्ली विश्वविद्यालय से प्रेरणा लेकर अपने स्कूलों में अध्यापकों के सभी पद नियमित ढंग से भरेगी। यदि उसने ऐसा किया तो वह अन्य राज्यों के लिए अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करेगी।

 

 

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