


जगमोहन सिंह राजपूत
नववर्ष के संकल्पों में सरकार और समाज यह भी संकल्प ले कि शिक्षा क्षेत्र जिन सुधारों की बाट जोह रहा है, उन्हें मूर्त रूप देने में विलंब न किया जाए
एक और साल समापन की और है। यह गुजरता साल भी प्रश्न पत्र लीक होने के कलंक से नहीं बच पाया। हाल में ऐसे दो मामले फिर सुर्खियों में आए। पहला मामला राजस्थान का है। यहां शिक्षक भर्ती परीक्षा का पहला प्रश्न पत्र लीक हो गया। परिणामस्वरूप परीक्षा रद हो गई। अध्यापन प्रशिक्षण की डिग्री लेकर नौकरी के लिए प्रतीक्षारत युवा फिर से निराशा की गर्त में पहुंच गए। दूसरा मामला हिमाचल प्रदेश का है। यहां राज्य कर्मचारी चयन आयोग के एक अधिकारी को परीक्षा से पहले ही हल किया गया प्रश्न पत्र बेचने के लिए गिरफ्तार किया गया। वहां भी परीक्षा रद हो गई। ऐसे मामले केवल दो राज्यों तक सीमित नहीं, किंतु कुछ राज्यों में इसने एक व्यवस्था का रूप ले लिया है। जैसे राजस्थान, जहां मौजूदा सरकार के कार्यकाल में ही दस बार बड़े स्तर पर प्रश्न पत्र लीक हुए हैं। हर बार मुख्यमंत्री अशोक गहलोत वही बात दोहराते हैं कि जांच होगी और दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा, लेकिन इस बार तो उन्होंने यहां तक कह दिया कि दूसरे राज्यों में भी तो ऐसा होता रहता है। निःसंदेह, तथ्यों के आधार पर उनकी बात गलत नहीं, लेकिन ऐसे बयान पीड़ित परीक्षार्थियों की संवेदनाओं पर और तीखा प्रहार करते हैं । इतना संवेदनहीन बयान कुछ और नहीं, बल्कि कार्यसंस्कृति में घोर अकर्मण्यता की सत्तासीनों द्वारा स्वीकार्यता की कहानी ही कहता है।
हाल में ही शिक्षा के मोर्चे पर राजस्थान का कोटा शहर भी गलत कारणों से चर्चा में रहा। प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के गढ़ के रूप में स्थापित हो चुके चंबल किनारे बसे इस शहर में कोचिंग सेंटरों की आपसी होड़ में मोहरे बनते छात्रों पर आकांक्षाओं का बोझ उनकी जिंदगी को लील रहा है। इस साल वहां करीब 15 छात्र आत्महत्या कर चुके हैं। इस पर बड़ी चिंता जताई जा रही है। कोचिंग सेंटरों को जवाबदेह बनाने के साथ ही सेंटरों को जवाबदेह बनाने के साथ ही शिक्षा की आदर्श संस्कृति स्थापित करने का जन दबाव बढ़ रहा है, लेकिन राज्य की सरकार को तनिक भी चिंता नहीं लगती। यही कारण है कि संवेदनहीनता के मामले में मुख्यमंत्री गहलोत से एक कदम आगे निकलते हुए राज्य के एक कदम आगे निकलते हुए राज्य के एक अन्य मंत्री ने कोटा की ‘कोचिंग फैक्ट्री’ को एक झटके में ही क्लीन चिट दे दी कि छात्रों की आत्महत्याओं का कोचिंग से कोई लेनादेना नहीं और ये संस्थान सभी स्थापित दिशानिर्देशों का पालन करते हुए अपना संचालन कर रहे हैं। जबकि सामान्य धारणा यही है कि कोटा में सब कुछ सही नहीं है। वहां जो प्रशिक्षण पद्धति अपनाई जाती है, वह बच्चों के बौद्धिक, मानसिक विकास के लिए उपयुक्त नहीं है। वह बच्चों पर अनावश्यक दबाव डालकर उन्हें तनाव से ग्रस्त करती है। उसमें त्वरित सुधार की आवश्यकता है।

यह किसी से छिपा नहीं रहा कि कोचिंग संस्थान छात्र को ‘सीखने के आनंद’ की अनुभूति कराने और उसकी समग्र प्रक्रिया से गुजारने के बजाय केवल ‘कम से कम समय में उत्तर देने का कौशल सिखाने समय’ में उत्तर देने का कौशल सिखाने में विश्वास करते हैं। प्रक्रिया से अधिक परिणाम पर उनका ध्यान होता है, क्योंकि जितना बेहतर परिणाम होगा, उतना ही उनका लाभ बढ़ेगा। प्रश्न पत्र लीक के कई मामलों की जब गहन जांच-पड़ताल होती है तो उसमें कोचिंग से जुड़े लोगों के नाम भी अक्सर सामने आते हैं। ऐसे में पर्चा लीक करने वाले माफिया और कोचिंग संचालकों को संदेह का लाभ नहीं दिया जा सकता। अधिक से अधिक परिणाम लाने की उत्कंठा कोचिंग वालों के साथ ही कुछ छात्रों और अभिभावकों को भी अनुचित राह पकड़ने से नहीं रोक पाती । यही कारण है कि प्रश्न पत्र लीक का व्यवसाय लगातार फल-फूल रहा है, लेकिन इसकी कीमत चुकानी पड़ती है परिश्रमी विद्यार्थियों को ऐसे विद्यार्थी जो कड़ी मेहनत करते हैं और जिनका काफी कुछ दांव पर लगा होता है, वे इस दुरभिसंधि के कारण ठगे रह जाते हैं। कई बार इसकी दुखद परिणति आत्महत्या रूप में सामने आती हैं। ऐसे में कोटा में बढ़ रहे आत्महत्या के सिलसिले को इससे अलग करके नहीं देखा जा सकता ।
इनके अतिरिक्त नकल माफिया ने भी शिक्षा जैसे पवित्र क्षेत्र को कलंकित करने का काम किया है। आखिर यह नकल माफिया कौन चलाता है ? कौन सहयोग देता है? उसके संबंध कहां तक जुड़े हैं? उसकी पहुंच कहां तक है ? ऐसे तमाम सवालों के जवाब सार्वजनिक दायरे में होते हैं, लेकिन सरकारें इनसे बेखबर या आंखें मूंदे रहती हैं। मध्य प्रदेश का व्यापम घोटाला इसका एक उदहरण है। ऐसे माफिया की नेटवर्किंग क्षमता की मिसाल दर्शाती है यह शिक्षा माफिया शासन-प्रशासन में प्रत्येक स्तर तक तिकड़म भिड़ाने में माहिर होता है। इसका भयावह परिणाम लाखों मेधावी छात्रों को भुगतना पड़ता है, जिनके स्थान पर अपात्र लोग चुनकर आ जाते हैं। ऐसे तमाम मेधावियों की पारिवारिक पृष्ठभूमि अत्यंत सामान्य होती है। उनके अभिभावक किसी प्रकार संसाधन जुटाकर उनके सपनों में रंग भरने के लिए हरसंभव प्रयास करते हैं, तो ये छात्र भी अपनी और से कोई कोर-कसर शेष नहीं रखते, लेकिन पर्चा लीक होने या नकल माफिया की साठगांठ के आगे परास्त हो जाते हैं। ऐसे में उनमें और उनके अभिभावकों में तनाव बढ़ना बहुत स्वाभाविक है।
वास्तव में कोचिंग संस्थानों पर अभिभावकों की बढ़ती निर्भरता और युवाओं की उस प्रक्रिया से गुजरने की मजबूरी संस्थागत शिक्षा पद्धति की सर्वविदित असफलता का प्रकटीकरण ही है। सरकारी स्कूलों में नियमित अध्यापकों की कमी, शिथिल कार्यसंस्कृति, अध्यापकों के के चयन में बंगाल जैसे अनैतिक घोटाले, शिक्षित माता-पिता का अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए बच्चों को किसी व्यवसाय विशेष में जबरदस्ती भेजना और बच्चों की इच्छा को किनारे कर कोटा जैसी ‘कड़ाही’ से गुजरने को मजबूर करना उचित नहीं कहा जा सकता। इससे न केवल बच्चों की नैसर्गिक प्रतिभा नष्ट होती है, अपितु वे कुंठित भी होते जाते हैं। यह उनके समग्र विकास में बाधक बनता है, जिसके नतीजे अक्सर आत्मघाती होते हैं। ऐसे में नववर्ष पर लेने वाले संकल्पों में सरकार और समाज का एक संकल्प यह भी होना चाहिए कि शिक्षा क्षेत्र जिन सुधारों की बाट जोह रहा है, उनको मूर्त रूप देने में अब विलंब न किया जाए।
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