भारत की ‘विकास यात्रा’ में पश्चिम का असर, निस्वार्थी, सेवाभावी जनप्रतिनिधि और लोकसेवक गायब

गांधी के देश में ही कितने लोकसेवक और चयनित प्रतिनिधि अपरिग्रह के लिए जाने-पहचाने जाते हैं? सामान्य जन से पूछिए तो वह यही कहेगा कि सत्ता में पहुंचे जन प्रतिनिधि तो शायद- अपवाद छोड़ कर- अपरिग्रह की अवधारणा से ही अपरिचित लगते हैं।

-जगमोहन सिंह राजपूत

थामस फ्रीडमैन ने लगभग दो दशक पहले अपनी पुस्तक ‘द वर्ल्ड इज फ्लैट’ में भारत में हो रहे बदलाव की विवेचना करते हुए लिखा कि जब वे बंगलुरु के एक कार्यालय में पहुंचे और उन्होंने अपने चारों ओर निगाह दौड़ाई, तो उन्हें लगा कि वे अमेरिका पहुंच गए हैं। उन्हें बाहर का परिदृश्य ठीक वैसा ही लगा जैसा अमेरिका के किसी बड़े शहर का उन दिनों होता था।

बहुराष्ट्रीय कंपनियों के चमकते-दमकते कार्यालय उन्हें हर ओर दिखे। उस कार्यालय में काम कर रहे युवा अपना उच्चारण अमेरिकी लहजे में ढालने का प्रयास कर रहे थे। इस पर फ्रीडमैन ने एक रुचिकर विनोद किया कि कोलंबस तो अनिश्चित यात्रा पर चला और अमेरिका पहुंच गया और उसे ही भारत मान लिया, मगर मेरा तो सब कुछ पूर्व-निर्धारित था, फिर मैं भारत के बजाय अमेरिका कैसे पहुंच गया?

अंग्रेजी साम्राज्य के नीति निर्धारकों ने भारत पर आधिपत्य बनाए रखने के लिए रणनीति बनाई कि ‘भारतीयों को भारत से अलग कर दिया जाए। उन्हें अपनी भाषा, संस्कृति, इतिहास से दूर कर उनके आत्मविश्वास को तोड़ दिया जाए।’ वे इसमें सफल रहे। भारत से जाते समय वे देश की शासन-व्यवस्था एक ऐसे पढ़े-लिखे वर्ग के हाथों में सौंप गए, जो हर स्तर पर अपने को अपने ही लोगों से अलग और श्रेष्ठ मानता था और पूरी तरह विश्वास करता था कि हर प्रकार की उत्कृष्टता का केंद्र यूरोप, इंग्लैंड ही हैं।

गांधीजी इस तथ्य से परिचित थे। उन्होंने देश में राष्ट्र के प्रति समर्पित नेतृत्व का जो वर्ग तैयार किया था, उसमें से अधिकांश उनके दर्शन से अभिभूत और उसे जीवन में उतार चुके थे। सात दशक पार कर चुकी पीढ़ी ने ऐसे लोगों को देखा है। उनमें से कुछ के लिए यहां तक कहा जाता था कि उनकी जीवन-शैली में गांधी के सिद्धांतों का स्वयं गांधीजी से अधिक अनुशासन से पालन होता था। ऐसे लोग गांधीजी के जाने के बाद अपने को अलग-थलग महसूस करने लगे, और अगले दो-तीन दशक तक उन सबने भारत के विकास की यात्रा में पश्चिम का प्रभाव बुझे मन से देखा।

इससे यह स्पष्ट है कि राष्ट्र के प्रति समर्पित नेतृत्व भी सत्ता में प्रवेश पाने की संभावना से कितना उतावला हो चला था और यह जानते हुए भी कि गांधीजी को कितना कष्ट होगा, वे भारत विभाजन तक को तैयार हो गए थे। उन्होंने गांधी को दरकिनार कर अपना रास्ता चुन लिया था। बीसवीं सदी में भारत तथा भारत के लोगों के हृदय, मस्तिष्क और कौशल को जिस गहराई से गांधी ने समझा था, वैसा शायद ही कोई दूसरा था। गांधी के विचारों को जो स्वीकार्यता भारत और विश्व पटल पर उनके जीवन काल में ही मिली थी, उसमें सेंध लगाने का काम उनके अंतिम वर्षों में भारत में ही प्रारंभ हो गया था।

सत्ता के लिए सिद्धांतों की बलि चढ़ाने में अब किसी को कोई हिचक नहीं होती। लोकसेवक और स्वार्थसेवक में अंतर कर पाना कठिन हो गया है। अपरिग्रह को अपना कर क्या कोई लोकसेवक आज किसी भी स्तर पर चयनित प्रतिनिधि बन सकता है? जो बनते हैं, उनमें से अधिकांश अपने मतदाताओं के लिए ही अलभ्य हो जाते हैं। इसके बरक्स गांधीजी ने लिखा था कि ‘जिसे अपने त्याग या लोकसेवक या आजीवन सेवक बनने का भान या अभिमान बराबर बना रहता है, वह लोकसेवक होते हुए भी अपनी पामरता का परिचय देता है।’

उस समय उनके आसपास ऐसे कितने ही लोग उपस्थित थे, जिन्होंने अपना सर्वस्व राष्ट्र सेवा में समर्पित कर दिया था। व्यावहारिक रूप में वे बापू की इस अपेक्षा पर खरे उतरते थे कि ‘लोकसेवक नम्रता की पराकाष्ठा दिखाए- शून्य बन कर रहे’। उसकी मिठास और नम्रता जनता और साथियों का मन जीत ले। उन्होंने विश्वासपूर्वक कहा कि ‘निस्वार्थी, नम्र, प्रामाणिक और चरित्रवान लोकसेवक जनता का प्रीतिपात्र न बना हो, ऐसा कोई अनुभव नहीं है।’

उनकी दूरदृष्टि में यह स्पष्ट था कि विकास और प्रगति के मार्ग पर देश तभी आगे बढ़ेगा, जब लोकसेवक मुख्य रूप से चयनित जनप्रतिनिधि हर स्तर पर अपनी उद्योग-परायणता तथा समय पालन का गुण श्रद्धा से अपनाएंगे और सामान्य जन के लिए अनुकरणीय उदाहरण बनेंगे। जापान आज द्वितीय विश्व-युद्ध की अपनी ध्वस्त-संसाधन की स्थित से अत्यंत सम्माननीय और समृद्ध राष्ट्र की स्थिति में केवल कठिन परिश्रम और समय के प्रति श्रद्धा तथा सदुपयोग के कारण ही पहुंचा है।

भारत ने गांधी की सीख को भुला दिया, या यों कहें कि अपनी नई पीढ़ियों को सिखा नहीं सका। आज जन सामान्य के मूल्यांकन में लोकसेवक- अपवाद छोड़ कर- अहंकार, अभिमान और असीमित संग्रहण में लिप्त व्यक्ति ही हैं। बापू की उस अपेक्षा से आज कितने चयनित प्रतिनिधि परिचित होंगे कि ‘लोक सेवक अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने की इच्छा से इस काम में प्रवृत्त नहीं हुआ है’! गांधी के देश में ही कितने लोकसेवक और चयनित प्रतिनिधि अपरिग्रह के लिए जाने-पहचाने जाते हैं?

सामान्य जन से पूछिए तो वह यही कहेगा कि सत्ता में पहुंचे जन प्रतिनिधि तो शायद- अपवाद छोड़कर- अपरिग्रह की अवधारणा से ही अपरिचित लगते हैं। आज ऐसे कितने लोकसेवक होंगे जो बापू की इस कसौटी पर खरे उतर सकें: ‘अनुभव यह है कि जिस पर विश्वास बैठ चुका है, वह लोकसेवक अपने कार्य क्षेत्र में एकाधिकारिता का उपभोग करता और जनता उसकी हर बात को मानती है। वह किसी का अप्रीति-पात्र या ईर्ष्यापात्र नहीं बनता और न किसी को त्रासदायक मालूम होता है।’

यह कैसी विडंबना है कि जनसेवा के नाम पर कितने लोग इस देश में पनपे, सामान्य जन को त्रास देकर अकूत संपत्ति के मालिक बने, और उन्हें राजनीतिक संरक्षण भी मिला। ऐसे लोगों से यह अपेक्षा करना एक अलभ्य कामना होगी कि ‘जनता की सेवा के लिए अपने धन, प्राण, परिवार, सुख-सुविधा, स्वतंत्रता आदि का त्याग करने की पहली जिम्मेदारी उसे अपने सिर पर लेनी चाहिए।’ पर, आशा की किरण यही है कि राजनीति और सत्ता से अलग रह कर कितने ही लोग लोकसेवा में संलग्न हैं। वे ही आशा के स्रोत हैं।

थामस फ्रीडमैन ने बिना सीधे कहे, नए भारत की शिक्षित युवा पीढ़ी की ग्रीन कार्ड जैसी अपेक्षाओं की सिद्धि के लिए उत्कंठा की ओर ही ध्यान नहीं दिलाया, उसने विकास की पद्धति की ओर भी इंगित किया था। तकली की बात तो देश ने स्वतंत्रता के बाद ही भुला दी, मगर आज जब कौशल अर्जन की महत्ता की ओर ध्यान देना ही पड़ रहा है, तकली के पीछे की दूरदृष्टि को समझने का प्रयास नई दिशा दिखा सकता है।

उसी से यह समझ भी बढ़ेगी कि भारत में सभी को काम देने और करने की स्थिति बनाने के लिए आवश्यक है कि परंपरागत कौशलों से तो परिचय पाया ही जाए, उनमें समयानुकूल परिवर्तन किए जाएं। व्यक्तिगत उद्यमशीलता को बढ़ाया जाए और हर व्यक्ति को भारत को समझने की आवश्यकता से परिचित कराया जाए। देश को विज्ञान, तकनीकी, उद्योग, व्यापार तो चाहिए ही, मगर इन सबको आवश्यक रूप से चाहिए गांधी, जो नैतिक आधार, संवेदना और सेवा को हर समय उजागर करता रहे।

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Moral compass is critical for democracy

The 75+ generation of Indians has seen and observed the decline of moral and humanistic values in the political sphere, and the consequent deterioration of the credibility of leaders, elected representatives, and those in office. It adversely impacts the very vitals of democracy, its institutions and, above all, the people and their concerns.

– J. S. Rajput

The manner the Indian Parliament conducted itself in the second half of the Budget session in March 2023 inflicts considerable disquiet amongst all those who revere it as a pious institution that could transform the lives of every Indian and give dignity and better life to those who deserve support and handholding because of exclusion and sufferings inflicted for generations due to historical, social and cultural constraints.

Could such an assembly of responsible people afford to waste their time for weeks together? They all are—officially—honourable individuals who are guardians of the Constitution; they are policymakers and lawmakers of the nation. The global image of India is changing fast; it is being viewed with considerable interest; there are high hopes in the international community. The last decade has convinced the powers that be that India is emerging as a self-confident nation; it is no more cowed down by its belligerent neighbours. India is no more willing to suffer ‘thousand cuts’ and terrorist attacks. The new-found sense of national pride could be seen in practically every home and hearth in India, in its farms and fields, across the high-end research labs bringing out innovations in areas, extending from artificial intelligence to space research.

India has enhanced its pace of change with full confidence and self-assurance. It has to make course corrections as well and must recall the Mahatma. ‘The Lonely Pilgrim (Gandhiji’s Noakhali pilgrimage)’, a compilation by Manubahan, contains the essence of how Gandhi realised that the national service has nowadays come to mean striving for a big name, according to many now, through which one can get a notice in the papers or is photographed—which is better—or secure ministership as a reward for going to jail.

So everyone wants to grab power in order to rise to a ministership in the end. But how can even good ministers do any notable work without the people’s support? The country does require ministers, but a minister can adorn his post only if he deserves it, Gandhi said. He observed, in this very context, the presence of ‘selfish stinginess’ and reiterated that “we must, therefore, train ourselves to keep national interest always before us.” And this was not the first time he was referred to ministers.

On September 18, 1938, when provincial governments had spent just ten months in ‘power’, things were not much different! The Mahatma received a letter from a citizen, indicating that the main purpose of the “Congress ministry appears to us to be to worship your idol in public and break it in secret; to worship the symbols of Imperialism in secret and denounce them in public, to play the malefactor towards their opponents when they cannot conquer by truthful and legitimate methods,..”

Gandhi had condensed this after “toning down the bitterest part.” The letter writer had also included a sentence which after 85 years appears prophetic: “The government of a people cannot be run by the common argument of promised boons and by corrupting the electorate with hope.”

The lesson to be drawn is clear: the mere scent of power coming to ministers made them leave no stone unturned to shake the moral foundation of good government. In this particular instance, the letter-writer found it strange why Gandhi’s “soul should not revolt against such a predatory Ministry for creation of which the moral responsibility is entirely yours”.

After over seven decades of Independence, India has more ex-ministers than serving ministers. The taste of having savoured power—exceptions apart—has been highly intoxicating. We have ‘Lok-Sewaks’ who swear by the name of Mahatma Gandhi but have amassed wealth by means that could be beyond the comprehension of the finest of economists. People have seen the growth and display of affluence that follows politicians becoming elected representatives, ministers and chief ministers. In fact, most panchas and sarpanchas of village panchayats have proved to be good learners from politicians.

The issue before the nation is: why are the elected representatives losing credibility among those who elect them and put them in the saddle of power?

The manner democracy is being conducted was most crudely exposed in the recent election of the mayor of Delhi, which presented a shocking spectacle for everyone who feels a sense of pride in Indian democracy. The entire country witnessed it, as did the world. I found it shameful. Sadly enough, one could cite numerous such instances that have led to the disaffection between the representative and those represented. 

On May 12, 1920, Gandhi said: “If I seem to take part in politics, it is only because politics today encircle us like the coils of a snake from which one cannot get out no matter how one tries. I wish to wrestle with the snake…” He did, and created a model of giving people a voice, a non-violent approach that helped not only India but so many other nations to throw away the yoke of imperialism, the caste system and apartheid.

In one word, he made people trust the moral force. On September 7, 1920, it was so articulated by Gurudev Rabindranath Tagore: “We need all the moral force which Mahatma Gandhi represents, and which he alone in the world can represent.” It was this moral force that every Indian was supposed to comprehend, internalise and put to practice.

Obviously, the representatives of people at every stage were—and are—supposed to be the prime torchbearers of the legacy of Gandhi. Each one of them needs self-introspection; they must analyze the extent to which their conduct is contributing to the national cause, strengthening democracy, and helping the amelioration of the miseries from the life of the ‘last man in the line.’

Ministers are put behind bars, but continue to receive all the perks and privileges of the post and position. It is an unheard-of situation in a democracy. How could India ignore resignations on moral grounds credibility—like those of TT Krishnamachari, KD Malaviya and Lal Bahadur Shastri?

This generation of elderly citizens often recalls Gandhi and his in-depth comprehension of a free person and a free nation. He acknowledged that the superficial study of the British Parliament had made him think that all power percolates to the people from parliaments. It was not so, he himself realized: “The truth is that power resides in the people and it is entrusted for the time being to those whom they may choose as their representatives. Parliaments have no power or even existence independently of the people.”

One earnestly hopes that the elected representatives realize the source of their power—the people—and ensure proper and well-informed debates and discussions in Parliament and Assemblies. Following the moral compass could strengthen their role performance and bestow the satisfaction of serving the needy.  

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पाकिस्तान की बदहाली के सबक

JS Rajput to represent UNESCO Executive Board

नैतिकता एवं मानवीय संवेदनशीलता का ह्रास व्यक्ति को ही नहीं, राष्ट्र को भी अंदर से खोखला जगमोहन सिंह राजपूत बना देता है

– जगमोहन सिंह राजपूत

भारत ने तुर्किये को भूकंप जनित घोर संकट के समय जिस तत्परता से सहायता पहुंचाई, उसकी वैश्विक स्तर पर प्रशंसा हुई, लेकिन पाकिस्तान ने इसकी कोई प्रशंसा नहीं की। जहां भारत ने एक बार फिर से मानवीय संवेदना का सशक्त उदाहरण प्रस्तुत किया, वहीं हमारे पड़ोसी ने फिर से वही ईर्ष्या और द्वेष को प्रकट किया। पाकिस्तान अपने को इस्लामी देश कहता है, लेकिन दूसरे इस्लामी देश को जाने वाली आपातकालीन सहायता में रोड़े अटकाने में नहीं हिचकता । दिवालिया घोषित होने की कगार पर खड़ा यह देश इन दिनों पूरे विश्व में सहायता मांग रहा है, लेकिन भारत को हजारों जख्म देने की नीति में कोई बदलाव नहीं कर रहा है। सत्ता से बेदखल होने के बाद हताशा और निराशा में डूबा हुआ विपक्ष आज चाहता है कि पाकिस्तान को परिवार माना जाए। वह कहे या न कहे, लेकिन भारत वहां सहायता पहुंचाए। हालांकि देश का जनमानस इसके लिए तैयार नहीं है। क्या भारत को यह भूल जाना चाहिए कि 26 नवंबर, 2008 को मुंबई में हमला किसने कराया था ? उसके अपराधी पाकिस्तान में आज भी खुलेआम घूम रहे हैं। अपने यहां अल्पसंख्यकों का लगभग सफाया करने वाला पाकिस्तान भारत के मुसलमानों के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी चिंता व्यक्त करता है और हंसी का पात्र बनता रहा है। किसी भी देश को सहायता देने के लिए सर्वोत्तम नीति-निर्देश यक्ष-युधिष्ठिर संवाद में निहित है। यक्ष से युधिष्ठिर कहते हैं कि दान सुपात्र को ही देना चाहिए। जाहिर है भारत के लिए पाकिस्तान अब सुपात्र की श्रेणी में नहीं आता।

किसी भी निष्पक्ष अध्ययन में यह स्वीकार्य होगा कि भारत में लोकतंत्र की जड़ें गहराई तक पैठ बना चुकी हैं। वर्ष 1947 में भारत के मुसलमानों के लिए एक सुरक्षित देश निर्मित करने की अपरिपक्व जिद पर विभाजन की त्रासदी लादकर बनाए गए पाकिस्तान की वर्तमान दयनीय स्थिति से आज सारा विश्व अवगत है। दरअसल पाकिस्तान के इस्लामी शासक कभी भी अन्य मतावलंबियों के प्रति दुर्भावना से मुक्त नहीं हो सके। भारत से प्रतिस्पर्धा करने में वे इतने अंधे हो गए कि अपने देश के लोगों के हितों की पूर्ति उनकी प्राथमिकता में ही नहीं रही। यही नहीं, वहां आधिकारिक तौर पर प्रारंभिक शिक्षा  से ही हिंदुओं के प्रति विशेष रूप से घृणा के पाठ पढ़ाए जा रहे हैं। पाकिस्तान ने अन्य सभी पंथों को इस्लाम से निम्नतर मानने के लिए अपने युवाओं को जिस तन्मयता से तैयार किया गया, उसने उसे दुनिया का सबसे असुरक्षित देश तो बना ही दिया, स्वयं पाकिस्तान में हिंसा का साम्राज्य फैला दिया है। पाकिस्तान में जिस प्रकार अल्पसंख्यकों की संख्या घटी, वह मानवाधिकारों के हनन का अत्यंत दुखद अध्याय है। नैतिकता और मानवीय संवेदनशीलता का ह्रास व्यक्ति को ही नहीं, राष्ट्र को भी अंदर से खोखला बना देता है।

ऐसे वातावरण में भ्रष्ट आचरण करने वालों को खुली छूट मिल जाती है। अविभाजित भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सभी समुदायों तथा क्षेत्रों की सशक्त भागीदारी रही। खान अब्दुल गफ्फार खान जैसे देशभक्तों को कौन भुला सकता है जिन्हें विभाजन ने ‘भेड़ियों को सौंप दिया था। गांधीजी द्वारा प्रतिपादित मूल्यों का प्रभाव मत और पंथ से ऊपर उठकर सभी पर पड़ा था। आजादी के बाद के दो-तीन दशकों तक देश में सत्ता और उसके बाहर ऐसे लोग उपस्थित थे, जिन्होंने देश के लिए सबकुछ न्योछावर कर दिया था। युवाओं पर उनका प्रभाव पड़ता था । जो सत्ता में पहुंचकर वहां की चकाचौंध में इन मूल्यों को त्यागना चाहते थे, उनकी भी आंखों में थोड़ी शर्म बाकी थी। इस स्थिति ने ही भारत में लोकतंत्र को पनपने में सहायता की। वहीं पाकिस्तान इससे वंचित रहा, क्योंकि उसके नेतृत्व को व्यक्तिगत लालच ने प्रारंभ से ही जकड़ लिया था। वहां नैतिकता के स्थान पर मतांधता को बढ़ावा दिया गया, जिसके परिणाम सबके सामने हैं।

लोकतंत्र की जड़ों को निरंतर खाद-पानी देते रहना भी आवश्यक होता है। भारत में पिछले दशक में जो नीतिगत परिवर्तन हुए हैं, उनके आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पक्षों पर सकारात्मक प्रभाव पड़े हैं। जो सत्ता में नहीं हैं, मगर पहले रह चुके हैं, उनकी व्यथा तो समझी जा सकती है, लेकिन उनकी सकारात्मक परिवर्तन को देख पाने की क्षमता का पूर्ण ह्रास लोकतंत्र के आगे बढ़ते रहने के लिए चिंता का विषय है। दिल्ली नगर निगम में पार्षदों के बीच हाथापाई जैसे अनेक उदाहरण न केवल शर्मनाक हैं, बल्कि सामान्य जन द्वारा उनकी भर्त्सना आवश्यक है। वर्तमान केंद्र सरकार द्वारा चलाई गई कल्याणकारी योजनाओं में किसी भी प्रकार के भेदभाव की पूर्णरूपेण अनुपस्थिति भारत के अल्पसंख्यकों के मध्य बड़ा सकारात्मक दृष्टिकोण ला रही है। यह परिवर्तन देश के विकास को नई दिशा देने में बड़ी भूमिका निभाएगा, लेकिन देश के हर सजग और सतर्क नागरिक को ध्यान में रखना होगा कि वे विघटनकारी तत्व जो वोटबैंक, जातीयता और क्षेत्रीयता के आधार पर लोगों को पांच-छह दशक तक बरगलाते रहे, आज पुनः सक्रिय हैं। उन्हें जार्ज सोरोस जैसे समाज को बांटने वालों पर पूरा विश्वास है। सामाजिक सद्भाव और पंथिक समरसता को लेकर जो नया दृष्टिकोण देश में पनप रहा है उस पर लगातार आक्रमण करने वालों से सचेत रहना आवश्यक है। पाकिस्तान के आज बदहाली के गर्त में पहुंचने के मुख्य कारण उसके नेतृत्व में भविष्य दृष्टि की अनुपस्थिति, स्वार्थ और लालच हैं। इसका मुख्य आधार भारत विरोध और हिंदुओं तथा भारतीय संस्कृति के प्रति उनकी घोर घृणा ही है। भारत और हर भारतीय को इस तथ्य को याद रखना आवश्यक है।

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हमेशा याद रहेगा वैदिकजी का संघर्ष

उनका इस तरह जाना अविश्वसनीय लग रहा है। जिस उत्साह से वैदिक जी एक नए दक्षेश की योजना को साकार रूप देने में लगे थे, उससे तो युवा ही नहीं उनके सभी सहयोगी भी प्रेरणा प्राप्त कर रहे थे। देश में हिंदी भाषा तथा भारतीय भाषाओं के लिए तरुणाई से ही लगातार कर्मठता से जुड़े रहे वैदिक जी पिछले छह दशकों से देश में युवाओं के लिए, विशेष कर राजनीति और पत्रकारिता के क्षेत्र में रुचि रखने वालों के लिए, प्रेरणा स्रोत बने रहे हैं।

उनके लेख और उसमें उपस्थित गहराई तथा उनकी अपनी विश्लेषण क्षमता अद्भुत थी। अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक उथल-पुथल के वे गहरे अध्येता और विश्लेषक थे। हिंदी तथा भारतीय भाषाओं के प्रचार-प्रसार के लिए जहां भी काम हो रहा था, वैदिक जी हर प्रकार से सहयोग देने तो तैयार रहते थे। संघ लोक सेवा आयोग में हिंदी माध्यम को लाने में उनके द्वारा किया गया संघर्ष भुलाया नहीं जा सकेगा। जेएनयू में हिंदी में डॉक्टरेट की थीसिस जमा करने के उनके संघर्ष ने उन्हें सारे देश में प्रतिष्ठा प्रदान की थी। वे जेएनयू के पहले छात्र थे, जिन्होंने हिंदी में थीसिस लिख कर डॉक्टरेट की डिग्री हासिल की थी। इसके लिए उनका अपना पूरा शैक्षणिक करियर दांव पर लगा दिया था।

अंतरराष्ट्रीय राजनीति खास कर दक्षिण एशिया के देशों की राजनीति पर उनका ज्ञान और जानकारी अद्भुत थी। भारत के लगभग सभी पड़ोसी देशों की राजनीति को उन्होंने बहुत नजदीक से देखा। इन देशों की राजनीति व एक देश के नाते उनकी विकास प्रकिया के संबंध में उन्होंने कितने ही लोगों को और गहन अध्ययन करने की प्रेरणा दी थी। इन देशों के राजनेताओं के साथ उनके निजी आत्मीय संबंध रहे और वे भी उनसे राय लेते रहते थे।

वैदिक जी के साथ बैठना अपने आप में चर्चा का स्तर ऊंचा कर देता था। उनकी अध्ययनशीलता सराहनीय थी। अंतिम समय तक अध्ययन और लेखन निर्बाध चलता रहा। उन्होंने देश और समाज में अपने लिए जो स्थान निर्मित किया था वह लोगों को आश्चर्य में डाल देता था। उस स्थान की पूर्ति संभव ही नहीं है। सही मायने में उनके जाने से देश की पत्रकारिता और सामाजिक विचार-विमर्श के क्षेत्र में एक खालीपन आया है। मुझे व्यक्तिगत रूप में साठ साल से आत्मीयता से जुड़े अपने बंधु के जाने का कष्ट तो अंतिम समय तक रहेगा ही। ईश्वर उन्हें अपने चरणों में स्थान दें!

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सिमटते संसाधन

प्रकृति क्षमा नहीं करती है। मनुष्य को मस्तिष्क, वैचारिक और विश्लेषणात्मक कौशल मिला है और उससे अपेक्षा है कि वह प्रकृति से उतना ही संसाधन उपयोग में लाए, जिसकी प्रतिपूर्ति करने का उत्तरदायित्व वह निभा सके।

जगमोहन सिंह राजपूत

सिद्ध दार्शनिक, वैज्ञानिक और गणितज्ञ रेने देकार्त (1596 -1650 ) ने लिखा था कि यह सामान्य मानवीय प्रवृत्ति है कि जो मुफ्त में मिल रहा हो, उसे निस्संकोच संग्रहीत कर लिया जाए, भले ही उसकी आवश्यकता हो या न हो। लेकिन देने के समय इसका ठीक उल्टा होता है। जितना कम देने से काम चल जाए, उतना अच्छा! केवल एक चीज ऐसी है जिसे दूसरों को देने के लिए व्यक्ति सदैव तैयार रहता है, बिना मांगे भी- दूसरों को अपनी राय देना, अपने ज्ञान से प्रभावित करना! जैसे-जैसे विज्ञान के नए-नए उपकरण मनुष्य के जीवन में सुख-सुविधा लेकर आए, उनके प्रति आकर्षण और उपभोक्तावाद बढ़ा, खर्चे बढ़े, घर-परिवार की प्राथमिकताएं बदलीं, भारत में वृद्ध आश्रमों कि संख्या बढ़ने लगी।

बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अकूत लाभांश प्राप्त करने और मानव जीवन को प्रभावित करने के लिए नए-नए तरीके निकाले। इसका प्रभाव हर स्तर पर नैतिक मूल्यों और मानवीय संवेदनाओं पर पड़ना ही था। 1950 के बाद के सात दशकों में हुए परिवर्तन को भारत की प्रौढ़ पीढ़ी ने गांधी के जीवन-मूल्यों के वृहद फैलाव से लेकर उनके लगभग पूरी तरह भुला दिए जाने तक देखा है। शायद इसी कारण पंक्ति के अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति की ओर साधन-संसाधन-संपन्न वर्ग का ध्यान नहीं जा रहा है। सामान्य नागरिक बाजारवाद में केवल उपभोक्ता है और इससे बचने का उपाय नहीं है।

अपरिग्रह, जो गांधी दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण अंश था, आज भी अत्यंत अपेक्षित मानवीय मूल्य के रूप सामान्यत: सभी की जानकारी में तो होता है, लेकिन ऐसे लोग कम ही मिलते है जो उसे व्यवहारिक जीवन में उतार सकें। भौतिक सुविधाओं और संसाधनों का अधिक से अधिक संग्रह करने के लिए मानवीय मन को हर प्रकार और हर तरफ से प्रभावित करने का प्रयास बाजार बड़े ही संगठित ढंग से लगातार कर रहा है।

वैसे यह तो व्यापार की सामान्य प्रवृत्ति मानी जानी चाहिए कि वह ग्राहक को अपनी ओर आकर्षित करे। अंतर केवल यह आया है कि अधिकाधिक संग्रहण की लालसा में अनेक ज्ञात कारणों से डरावनी तेजी आई है और उसके परिणामस्वरूप अनावश्यक संग्रहण की तरफ आकर्षित होनेवालों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। परिणाम भी सामने आ रहे हैं।

प्राकृतिक संसाधनों का अनावश्यक, अनैतिक और अस्वीकार्य दोहन प्रकृति पर मनुष्य का ही अमानवीय प्रहार है। उत्तराखंड में जमीन धंस रही है, उसके कारणों में वहां के प्राकृतिक संसाधनों के दोहन और शोषण को कोई भी नकार नहीं पाएगा। प्रकृति क्षमा नहीं करती है। मनुष्य को मस्तिष्क, वैचारिक और विश्लेषणात्मक कौशल मिला है। उससे अपेक्षा है कि वह प्रकृति से उतना ही संसाधन उपयोग में लाए, जिसकी प्रतिपूर्ति करने का उत्तरदायित्व वह निभा सके।

अनियंत्रित लालच, अधिक धनवान और वैभवशाली होने की लालसा ने उसे ऐसा करने से रोका है। इसी कारण गरीब-अमीर के बीच खाई लगातार बढ़ रही है। आंकड़ें हैं कि विश्व की 1.1 फीसद आबादी के पास विश्व कि आधी संपत्ति का मालिकाना हक है, जबकि पचपन फीसद आबादी के पास केवल 1.3 फीसद। एक अनुमान है कि लगभग पचासी धनाढ्य परिवार करीब आधी वैश्विक धन-संपत्ति के मालिक हैं।

बीसवीं सदी की सबसे बड़ी उपलब्धि इसी सोच की सार्वभौमिक स्वीकार्यता थी कि प्राकृतिक संसाधनों पर सभी का समान अधीकार है। लेकिन विकास की जो अवधारणा अपनाई गई, उसके परिणामस्वरूप पिछले पचास सालों मे पर्यावरण प्रदूषण, बढ़ते तापमान, जलवायु परिवर्तन, जहरीली हवा में सांस लेने की निरीहता, कार्बन उत्सर्जन, जैसी कितनी ही जटिल समस्याएं उभरी हैं।

स्थिति का अनुमान संयुक्त राष्ट्र के महासचिव अंतोनियो गुतारेस के उस वक्तव्य से लगाया जा सकता है, जिसमें उन्होंने कहा था, ‘असीमित और असंतुलित आर्थिक संपन्नता और विकास की अनियंत्रित दौड़ में मनुष्यता खुद ही अपने विनाश का यंत्र बन गया है’।

दरअसल, इस समय की सबसे बड़ी और कठिन समस्या प्रकृति के साथ अपने संबंधों को फिर नैसर्गिक स्वरूप में लाने की है। लालच, वैभव-प्रदर्शन और उसके लिए अकूत संग्रहण मनुष्य के जीवन पर सदा से अपना प्रभाव डालते रहे, लेकिन समाज का समेकित और स्वीकार्य मार्गदर्शन उसे किसी भी अति से बचाता रहा है। भारत की सभ्यता में पशु-पक्षियों, पेड़-पौधों, नदी-पहाड़ों को देवत्व प्रदान किया गया है। आज भी किसान और अन्य परिवार जन इसका ध्यान रखते हैं कि उनके आसपास के पशु-पक्षियों को खाने-पीने की कमी न हो।

निश्चित ही मनुष्य की समझ बढ़ी है, विज्ञान बढ़ा है, लेकिन इसी के साथ परंपरागत ज्ञान की वैज्ञानिकता से लोग विमुख होते गए हैं। अगर ऐसा नहीं हुआ होता तो चीन जैसा देश गौरैया को अनाज का दुश्मन क्यों मान लेता है? दलील सिर्फ यह कि वे खेतों में अनाज का नुकसान करती थीं। नतीजा- कीड़े-मकोड़े और विशेषकर टिड्डियां बढ़ीं, जिनका सफाया गौरैया करती थी, और फसलें नष्ट हो गई।

अनुमान के मुताबिक चीन में तीन करोड़ के करीब लोग 1958-62 के अकाल में भूख से मरे। चीन ने केवल गौरैया को ही निशाना नहीं बनाया, उस अभियान में मच्छर, चूहे और कीट भी शामिल थे। आज यह सभी की समझ में आ गया है कि पृथ्वी पर जीवन के बचे रहने के लिए कीट भी उतने ही आवश्यक हैं, जितना हवा, पानी और भोजन। जंगलों का कटना, प्रदूषण, कृत्रिम रोशनी, जलवायु परिवर्तन आदि के कारण प्रतिवर्ष दो फीसद कीट कम हो रहे हैं।

कम लोग ही यह जानते होंगे कि कीट लगभग पचहत्तर फीसद फसलों का परागण करते हैं। ज्ञान की अधूरी समझ और जानकारी कितनी भयानक त्रासदी उत्पन्न कर सकती है, चीन का गौरैया विनाश हिरोशिमा-नागासाकी के बाद का सबसे भयावह उदाहरण है।

मनुष्य के समक्ष जो अत्यंत भीषण स्थिति उत्पन्न हुई है, उसका समाधान भी मनुष्य को ही निकालना है। क्या कोई यह अनुमान लगा सकता है कि मानव पर्यावरण पर 5-16 जून, 1972 में स्टाकहोम में आयोजित सम्मेलन के बाद कितने अन्य वैश्विक सम्मेलन हो चुके हैं? कभी जलवायु संकट पर चर्चा होती है तो अन्य अवसरों पर जल प्रदूषण, वायु प्रदुषण, बढ़ते तापमान, खाद्य संकट, कार्बन उत्सर्जन, जैविक विविधता के ह्रास जैसे विषय इन सम्मेलनों में चर्चित होते हैं।

दूसरी तरफ परमाणु निरस्त्रीकरण और आणविक हथियारों के जखीरे घटाने जैसे विषय भी चर्चित होते रहते हैं। स्पष्ट है कि समस्याएं केवल मनुष्य और प्रकृति के संबंधों की डोर टूटनें तक सीमित नहीं हैं। मनुष्य-मनुष्य के बीच के संबंधों में अविश्वास लगातार बढ़ रहा है, जिसने असुरक्षा की अत्यंत चिंताजनक स्थिति उत्पन्न कर दी है।

हिंसा, आतंकवाद, युद्ध, पलायन और असुरक्षा हर ओर अपना नकारात्मक प्रभाव डाल रहे हैं। इस स्थिति को बदलने के लिए अत्यंत सघन प्रयासों की आवश्यकता होगी। भारत को प्रकृति और मानवता के प्रति अपना परंपरागत उत्तरदायित्व निभाने का यह कठिन अवसर उपस्थित हुआ है। इसमें सभ्य समाज की भूमिका सरकारों से कहीं अधिक होगी। उसे हर स्तर तक पहुंचाना होगा। पहले कदम के रूप में प्रारंभ अध्यापकों से हो सकता है, क्योंकि वे आज भी समाज में सबसे अधिक सम्मानित वर्ग बने हुए हैं। आवश्यक है कि वे इसे पहचानें।

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अस्थायी अध्यापकों का अनावश्यक चलन

प्रत्येक सजग सक्रिय और जागरूक देश अपनी शिक्षा व्यवस्था को लगातार सुधारने का प्रयास करता है। ऐसा सुधार तभी संभव हो पाता है जब सरकारें और संस्थान अध्यापकों को अपेक्षित सम्मान देते हैं। उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति कर उन्हें उचित परिवेश में कार्य करने की स्वायत्तता प्रदान करते हैं।

जगमोहन सिंह राजपूत

दिल्ली सरकार में शिक्षा मंत्री के एक हालिया बयान से मुझे बड़ी हैरानी हुई है। वह चाहते हैं कि दिल्ली विश्वविद्यालय यानी डीयू के 28 महाविद्यालयों में नियमित अध्यापकों की नियुक्तियों को तुरंत रोक दिया जाए, क्योंकि इससे उनकी सरकार पर आर्थिक बोझ बढ़ेगा। बोझ तो बढ़ेगा, क्योंकि नियमित अध्यापकों को अधिक वेतन देना होगा जो दिल्ली सरकार नहीं चाहती है। जब महाविद्यालय किसी प्रकार चल ही रहे हैं तो दिल्ली सरकार इस अतिरिक्त बोझ को क्यों उठाए? क्या किसी आधुनिक देश में ऐसे संकुचित सोच को स्वीकार किया जा सकता है? यह वही शिक्षा मंत्री हैं, जिन्हें लगता है कि दिल्ली की शिक्षा में सुधार का रास्ता फिनलैंड से होकर जाता है। अतः सभी अध्यापकों को प्रशिक्षण के लिए वहीं जाना चाहिए। नि:संदेह फिनलैंड की शिक्षा व्यवस्था की वैश्विक सराहना होती है। उसके पीछे के कारक समझना आवश्यक है। वहां शिक्षक ही एकमात्र ‘वीआइपी’ होता है। फिनलैंड में शिक्षक प्रशिक्षण संस्थान की प्रवेश परीक्षा में उत्तीर्ण होना हर युवा का वैसा ही सपना होता है जैसा अपने यहां यूपीएससी परीक्षा में सफलता पाना। वहां अध्यापकों का वेतन किसी अन्य पेशे में कार्यरत पेशेवर से कम नहीं होता। इस स्थिति की तुलना दिल्ली सरकार की उस चिंता से कीजिए जो उसने अस्थायी अध्यापकों के स्थान पर नियमित नियुक्तियों से पड़ने वाले आर्थिक बोझ पर जताई है। जबकि शिक्षण संस्थानों में नियमित अध्यापकों की कमी विद्यार्थियों के साथ अन्याय होने के साथ ही देश के प्रति भी घोर लापरवाही है।

प्रत्येक सजग, सक्रिय और जागरूक देश अपनी शिक्षा व्यवस्था को लगातार सुधारने का प्रयास करता है। ऐसा सुधार तभी संभव हो पाता है जब समग्र तंत्र यानी सरकारें और संस्थान अध्यापकों को अपेक्षित सम्मान देते हैं। उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति कर उन्हें उचित परिवेश में कार्य करने की स्वायत्तता प्रदान करते हैं। स्पष्ट है कि फिनलैंड का दौरा करने से ही शिक्षा की समझ बढ़ने और उसमें सुधार की संभावना नहीं। इससे भी अधिक चिंताजनक यह है कि अध्यापकों के रिक्त पद भरने और विशेषकर नियमित प्राचार्य की नियुक्ति की आवश्यकता की महत्ता विदेशी दौरों के बाद भी नहीं समझी गई।

दरअसल केंद्र सरकार ने केंद्रीय विश्वविद्यालयों में नियुक्तियों को तेज करने का निर्देश दिया है और दिल्ली विश्वविद्यालय उसका ही पालन कर रहा है। हालांकि, कई स्तरों पर नियुक्तियों का अधिकार राज्य सरकारों के पास है, जिनसे केंद्र केवल अनुरोध कर सकता है। ऐसे में केंद्र द्वारा पोषित और संचालित केंद्रीय विश्वविद्यालयों को अकादमिक नियुक्तियों में अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करने का उत्तरदायित्व निभाना चाहिए। इसके साथ ही इन विश्वविद्यालयों को प्राध्यापकों के चयन में पूर्ण पारदर्शिता तथा प्रत्याशियों की प्रतिभा के सम्मान पर सभी का विश्वास भी अर्जित करना चाहिए।

इस समय दिल्ली विश्वविद्यालय में सभी स्तरों पर अध्यापकों की तेजी से हो रही नियमित नियुक्ति की प्रशंसा दिल्ली में नहीं, बल्कि पूरे देश के उच्च शिक्षण संस्थानों में हो रही है। यहां तमाम युवा वर्षों से अस्थायी तौर पर नियुक्त थे। वे प्रतिवर्ष नियुक्ति के लिए नए साक्षात्कार का सामना कर पढ़ा रहे थे। यह स्थिति अस्वीकार्य थी। परिस्थिति कितनी कष्टकर हो सकती है उसका एक उदाहरण वह युवा है, जिसका चयन 2002 में एक राष्ट्रीय संस्था में प्रवक्ता के पद पर हुआ था। उसने पारिवारिक परिस्थितिवश परिवार को छोड़कर जाना स्वीकार नहीं किया, तब से लगातार अस्थायी अध्यापक के रूप में अध्यापन करता रहा। कई वर्ष बाद उसे अब उसी पद पर नियुक्ति मिली है। यह बीस वर्ष कितनी अनिश्चितता तथा तनाव में गुजरे होंगे, इसका अनुमान भुक्तभोगी ही लगा सकता है। इस प्रक्रिया से जुड़ा तंत्र नहीं समझ पाता कि ऐसे हजारों युवाओं की बौद्धिक क्षमता को कुंद करने वालों ने राष्ट्र के प्रति भी घोर अपराध किया है। बीस वर्षों में जो व्यक्ति आपनी प्रतिभा को निखार सकता था, शोध एवं नवाचार में योगदान दे सकता था, परिवार के प्रति अपने कर्तव्य निभा सकता था, उसे भविष्य की अनिश्चितता में धकेल देने वाले कौन लोग हैं और वे उन पदों पर रहकर अपनी अक्षमता का प्रदर्शन क्यों करते रहे?

अभी तक विश्वविद्यालयों में अध्यापन कार्य के लिए डाक्टरेट उपाधि महत्वपूर्ण अर्हता रही है। इस उपाधि की प्राप्ति के दौरान शोधार्थी शोध के मर्म को समझता है। समय के साथ उसके शोध की दिशा और स्तर भी निश्चित होते जाते हैं। यह समय यदि निराशाजनक परिस्थितियों में बिताना पड़े तो युवाओं के विचारों, संकल्पना-शक्ति, जिज्ञासा और रचनात्मकता को शिथिल कर देता है। जबकि यही वह समय होता है जब देश अपने युवाओं से नवाचार, शोध और सृजन में आगे आकार राष्ट्रीय बौद्धिक संपदा में वृद्धि करने की अपेक्षा करता है।

पिछली सदी के सातवें दशक के आसपास भारतीय युवाओं ने अपनी बौद्धिक क्षमता की ओर पूरी दुनिया का ध्यान खींचा, जब उन्होंने अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा में बौद्धिक, वैज्ञानिक एवं तकनीकी नवाचार में जबरदस्त योगदान दिया। यह सिलसिला सिलिकन वैली में भारतीयों के छा जाने तक जारी है। स्मरण रहे कि पिछली सदी के सातवें-आठवें दशक तक उच्च शिक्षण संस्थानों में शिक्षकों के पद रिक्त नहीं रहते थे। अध्यापकों के पास विद्यार्थियों की समस्याओं के समाधान का समय रहता था। चर्चा-परिचर्चा के लिए समय होता था। जबकि अस्थायी अध्यापकों के बढ़ते चलन ने न केवल पढ़ाई की स्थिति को खराब किया, बल्कि शोध की गुणवत्ता को भी क्षति पहुंचाई है।

मुझे विश्वास है कि दिल्ली विश्वविद्यालय अपनी नियुक्ति प्रक्रिया में किसी भी दवाब या अनावश्यक हस्तक्षेप को स्वीकार नहीं करेगा। बेहतर हो कि दिल्ली सरकार फिनलैंड की शिक्षा व्यवस्था के सार तत्व को समझकर ऐसी व्यवस्था करेगी जिसमें अध्यापकों को प्रत्येक स्तर पर सम्मान मिले। साथ ही साथ वह दिल्ली विश्वविद्यालय से प्रेरणा लेकर अपने स्कूलों में अध्यापकों के सभी पद नियमित ढंग से भरेगी। यदि उसने ऐसा किया तो वह अन्य राज्यों के लिए अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करेगी।

(लेखक शिक्षा, सामाजिक सद्भाव और पंथिक समरसता के क्षेत्र में कार्यरत हैं)

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Let love permeate life and living

J S Rajput

For human survival, love is the panacea. It must essence of human life else we are bound to end up fighting and annihilating everything around

– J. S. Rajput

Human survival on the planet earth is unthinkable without the presence of love. It needs no elaboration on how critically significant is the presence of love amongst living beings. In a rare instance in contemporary history, hatred, violence prolonged incarceration only helped purify the stream of love within an enlightened individual, Nelson Mandela. He presented a shining example of how love could overcome even the most ferocious inflictions of hatred: “People are not born to hate. They are taught to hate. They can be taught to love. No one is born hating another person because of the color of his skin, his background, or his religion. People must learn to hate, and if they can learn to hate, they can be taught to love, for love comes more naturally to the human heart than its opposite It is also a stark reality that people suffer burgeoning levels of hate, distrust, terror, violence, and wars. And this is happening in our civilized world in the third decade of the 21st century!

Never before have human beings been familiar with the secrets of nature today. Never before governments, and global organizations were as wellequipped as today to annihilate human suffering anywhere on the planet earth. Then, why are people suffering on one count or the other? Love flourishes in peace, in righteous conduct, in nonviolence, in truth! All these five truths, peace, nonviolence, righteous conduct, and love the ultimate prescription for a totally humane world.

Interestingly, each one of these is organically linked to the other four! This perfect five is also an expression of ultimate human aspiration. It would be a goal that subsumes spirituality; the essence of faith and manifestation of the essential unity of all human beings, and the eternal search for truth.

The very survival of the planet earth; and hence humanity; is at stake. The world before us; and emerging before generations ahead; was comprehensively articulated by the secretary general of the UN Antonio Guterres at the COP15, representatives from 190 countries met in Montreal in December 2022 to take a final call on global biodiversity framework for years ahead: “With our bottomless appetite for unchecked and unequal economic growth, humanity has become a weapon of mass destruction. We are treating nature like a toilet. And ultimately, we are committing suicide by proxy:’

Obviously, the survival of humanity on the planet earth requires a twofold long-term strategy that could give lasting impetus to the process of learning universal values and internalization of humane elements by every citizen and every human being. This process  of moving ahead in the direction of a humane world  would require the participation of every individual citizen and human being in two major initiatives: restoration of the sensitive man-nature mutuality on one hand, and reinventing the man-man relationship to a level where every person treats every other person ‘as he himself would like to be treated by everyone else.

NEVER BEFORE, HUMAN BEINGS WERE FAMILIAR WITH THE SECRETS OF NATURE AS OF TODAY. NEVER BEFORE GOVERNMENTS, AND GLOBAL ORGANIZATIONS WERE AS WELLEQUIPPED AS TODAY TO ANNIHILATE HUMAN SUFFERINGS ANYWHERE ON THE PLANET

It is not something like two agenda items in a plan or program; it would cover every aspect of human life and living, it would require high-level intellectual churning, and acceptance of the reality that ‘learning to live together’ and Wasudhaiv Kutumbakam’ are no more clichés, but a basic approach and skill that is as essential to human survival as are air, water, and food. As one contemplates the existing and emerging shape and situation of our planet, attention invariably shifts to the process of growing up of human beings, the manner each innocent and unaware child is taught to love. Let the child witness love all around in family, schools, and society let him observe love connecting people. Let this environment transform him from a ‘person to a personality. Education policies deserve fresh thinking and let humanistic and ethical values develop around the fulcrum of love. Educational institutions, particularly teacher preparation establishments, could set examples. One has personally observed how national and regional level educational institutions nurture love across all diversities. These need to remain conscious of external elements that would be interested in disturbing the symphony of national unity and integrity.

 Teaching learning materials are undergoing serious transformations, and this is the time to ensure that no opportunity is ignored that could reemphasize the need to internalize love for others, and the desire to help and serve the needy. Rapid technological advancements are threatening to downgrade human ingenuity and intelligence.

These could lead to neglect of the human element in the process of growing up, and also in professional life. It has to be taken note of in the preparation of textual materials. The objective of education must be cautiously woven around humane values. It must particularly lay emphasis on the equality of all religions, and comprehension of universal human values drenched in love. These form part of every faith and religion. In a cohesive world, human life must remain a quest for the secrets of nature; it must persistently strive to understand man, nature, and the beauty that makes every initiative and effort worthwhile. The future world must appear beautiful to its inhabitants, Recall the lines of Keats: “Beauty is truth, / Truth beauty – that is all / ye know on earth, / and all ye need to know.

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अपनत्व से अपरिचय

J S Rajput

शिक्षा

प्रगति और विकास की तेजी के इस दौर में लगातार सीखना अब केवल स्कूलों और महाविद्यालयों तक सीमित नहीं है। इसके क्षितिज का विस्तार सार्वभौमिक है, संपूर्ण राष्ट्र को सीखते रहना है।

– जगमोहन सिंह राजपूत


           सात-आठ दशक पहले जितने भी देश उपनिवेशवाद से मुक्त हुए, वे सब उस समय विकासशील या निम्न विकासशील देश कहलाए। लगभग इन सबके समक्ष दो मुख्य चुनौतियां थीं। पहली, अपने देश के एक विशिष्ट वर्ग को, जो पहले से ही सत्तातंत्र चलाता आ रहा था, उपनिवेशवादी मानसिकता से कैसे मुक्त करें। दूसरी, विकास की कौन-सी अवधारणा अपनाई जाए। पूर्व-उपनिवेशवादी शक्तियां इन देशों में अपनी बनाई विकास पद्धतियों को नए कलेवर में जारी रखना चाहतीं थीं। वे सहायता के लुभावने प्रस्ताव प्रस्तुत कर रहे थे। आर्थिक सहायता के अंतर्गत वे अपने विशेषज्ञ तथा योजनाएं और उपकरण तक देने को प्रस्तुत थे ! भारत की स्वतंत्रता के बाद के तीन – चार दशक इसका अत्यंत सटीक उदहारण रहे हैं। सत्ता से बाहर अनेक विद्वत जन, विशेषकर वे जो गांधी को समझाते और उन्हें भुलाने को तैयार नहीं थे, इस स्थिति से चिंतित थे । विचारक धर्मपाल ने तीसरी पंचवर्षीय योजन पर संसद में हुए संवाद का अध्ययन कर अपनी चिंता कुछ इस प्रकार प्रकट की थी: ‘जिन लोगों को लेकर हम सपने बुनते, योजनाएं बनाते हैं, वे तस्वीर में हैं कहां? हम जिस भारत का पुनर्निर्माण करना चाहते हैं, उसमें श्रमिक या दिहाड़ी मजदूर कितने और कहां शामिल हैं?’ इस अलगाव के कारण अत्यंत गहरे हैं। उन्हें समझने के लिए भारत की आत्मा के निकट जाना होगा। इस आत्मा को जगाना पड़ेगा। बड़े बांध और स्टील के कारखाने निर्मित करने के पहले हमें भारत के उन लोगों जिन्हें अज्ञानी और अशिक्षित माना जाता है। और ‘टीमिंग मिलियन्स’ कह कर संबोधित किया जाता है की आत्मा को जागृत करना होगा। इसी में निहित भारत के लिए विकास की उपयुक्त अवधारणा को बाद के दशकों में शिक्षाविद दौलत सिंह कोठारी भी अपने ढंग से प्रस्तुत करते थे:

         ‘भारत के विकास के मूल तत्त्व हैं- एसटीपीजी- साइंस, टेक्नोलाजी, प्रोडक्शन, और गांधी!’ अगर देश ने प्रारंभिक वर्षों में चरित्र निर्माण पर जोर दिया होता, तो संसाधनों की कमी के कारण भले भाखड़ा नांगल, भिलाई और बोकारो के निर्माण में देर होती, लेकिन जो शिक्षित युवा वहां या अन्य किसी क्षेत्र में कार्यभार संभालते, वे देश के प्रति समर्पित होते। लोगों के प्रति अपनत्व का भाव रखते, ईमानदारी का जीवन जीते और अपरिग्रह से इतने दूर नहीं हो जाते कि उसे भूल ही जाएं। सड़कें पहली बरसात में बह नहीं जातीं, नए पुल कुछ महीनों में ही ढहते नहीं! उस स्थित की कल्पना कीजिए, जिसमें गांव से शहर आने वाले बीमार व्यक्ति को अस्पताल में समय से डाक्टर मिलते और उसे सारी दवाइयां वहीं पर उपलब्ध करा दी जातीं! कचहरी में, नगरपालिका कार्यालय में हर व्यक्ति यह सोच कर न जाता कि उसे सुविधा शुल्क तो देना ही पड़ेगा। पुलिस विभाग के किसी भी व्यक्ति को देखकर अपनत्व और सुरक्षा का भाव जागृत होता ! यह अलभ्य लक्ष्य नहीं है। अगर व्यक्तित्व विकास और कार्य संस्कृति को प्रारंभिक वर्षों से ही अपेक्षित प्राथमिकता दी जाए, तो अब भी एक दशक के अंदर क्रांतिकारी परिवर्तन संभव है। स्वामी विवेकानंद ने व्यक्ति और भ्रातृत्व का अर्थ वसुधैव कुटुम्बकम् के संदर्भ में हमें समझाया थाः ‘केवल एक ही ईश्वर की पूजा होनी है: मनुष्य की आत्मा और भौतिक शरीर! जानवर का शरीर भी मंदिर है, लेकिन मनुष्य सबसे ऊपर है।’ उन्होंने इसके आगे यह भी कहा कि जब तक लाखों (करोड़ों) लोग भूख तथा अज्ञान के अंधकार में रहने को मजबूर हैं, तब तक मैं हर शिक्षित व्यक्ति को विश्वासघाती समझता हूं, जो उनकी ओर ध्यान नहीं देता है।

          पश्चिम की सभ्यता के संबंध में ‘हिंद स्वराज’ में व्यक्त की गई आशंकाएं आज हर ओर उपस्थित दिखाई देती हैं। आज की युवा पीढ़ी के समक्ष वैश्वीकरण, उदारवाद और व्यापारीकरण से उत्पन्न चकाचौंध में इतना कुछ आकर्षक दिखाई देता है, जिससे बाहर हट कर यह देख पाना अत्यंत कठिन हो गया है कि उसमें कितना कुछ केवल मृग मरीचिका है, और उसकी आवश्यकता, व्यावहारिकता तथा उपयोगिता कितनी सीमित है। इस समय सामान्य मानव जीवन में असुरक्षा, अविश्वास, अशांति, प्रतिस्पर्धा, संग्रहण के प्रति आकर्षण और उससे जनित व्यावहारिक नकारात्मकता की उपस्थिति के कारण व्यग्रता और उग्रता हर ओर दिखाई देते हैं। कुल मिलकर व्यक्ति के आचरण को पथभ्रष्ट करने के लिए जैसा सम्मोहक वातावरण इस समय बना हुआ है, वैसा शायद ही पहले कभी रहा हो ! ऐसी स्थिति में शांति और सद्भावना की ओर तेजी से आगे बढ़ने की आवश्यकता निर्विवाद है। परिवर्तन के कुछ पक्ष अगर गहराई से विश्लेषित किए जाएं, तो स्थिति अधिक स्पष्ट होती जाएगी। शिक्षा के प्रति बदले हुए दृष्टिकोण और उसके देश की संस्कृति से अलगाव ने उसे पूरी तरह जीवन में केवल अधिक धनोपजन और समय वृद्धि के लक्ष्य तक के साथ उसमें लगातार सीमित कर दिया है। भारत जैसे देश में भी शिक्षा को आत्मबोध तथा आध्यात्मिकता के सामान्य परिचय तक से अलग कर दिया गया था। आशा की किरण यही है कि अब इसकी कमी के परिणामों की नकारात्मकता से सभी परिचित हो चुके हैं, और शिक्षा नीतियों में आवश्यक परिवर्तन किए जा रहे हैं।

          प्रगति और विकास की तेजी के इस दौर में लगातार सीखना अब केवल स्कूलों और महाविद्यालयों तक सीमित नहीं है। इसके क्षितिज का विस्तार सार्वभौमिक है, संपूर्ण राष्ट्र को सीखते रहना है। भारत की हरित क्रांति इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, रास्ता वैज्ञानिकों ने दिखाया, मगर व्यावहारिक परिवर्तन के लिए सदियों से परंपरागत ढंग से कृषि कार्य करने वाला किसान दृष्टिकोण परिवर्तन को तैयार हुआ, यह गतिशीलता की स्वीकार्यता का जबर्दस्त उदाहरण उस वर्ग में बना, जिसे पश्चिमी शिक्षा से प्रभावित विशिष्ट वर्ग जाहिल समझाता था। वैसा ही एक विशाल दृष्टिकोण परिवर्तन भारत के अध्यापकों और उसकी शिक्षा- व्यवस्था में लाना होगा। ऐसे प्रयास किए गए हैं, नीतिगत स्तर पर ही नहीं, अनेक संस्थाओं ने भी इस दिशा में अत्यंत महत्त्वपूर्ण अनुभव प्राप्त किए हैं। शिक्षा संविधान की समवर्ती सूची में शामिल है। इसलिए राष्ट्रीय स्तर पर कोई देशव्यापी पहल तभी सफल होगी जब केंद्र और राज्य सरकारें एकमत होकर नए उत्साह से ऐसे आंदोलन का सूत्रपात करें, जो अध्यापकों और उनके विभागीय अधिकारियों को उनके राष्ट्र निर्माण के कार्य के सूत्रधार होने को स्पष्ट करे, उनका मनोबल बढ़ाए तथा उन्हें आश्वस्त करे कि उनकी अनिश्चितताओं तथा आशंकाओं को दूर करनें में देरी न होने की कारगर व्यवस्था उपलब्ध होगी।

          प्राचीन भारत का वैश्विक सम्मान उसकी ज्ञानार्जन की सशक्त परंपरा, अध्यात्म की समझ, वैचारिक विविधता का सम्मान तथा वैश्विक मानवीय बंधुत्व के दर्शन के कारण ही रहा है। यह सब इसलिए संभव हो सका कि इसमें संलग्न वर्ग जीवन में अपरिग्रह को पूरी तरह अपनाता था, सत्ता ऐसी संस्थाओं को न केवल आवश्यक भौतक संसाधन उपलब्ध कराती थी, बल्कि उसका सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान ऐसे सभी तपस्वी व्यक्तियों तथा आचरण- संवर्धन केंद्रों के प्रति असीम सम्मान की अभिव्यक्ति बनाए रखने का था। आज तो ज्ञान- साम्राज्य का युग है, लेकिन विद्वत – वर्ग तथा सत्ता के बीच के संबंध भी पहले जैसे नहीं रहे हैं। सामान्य जन को नई उर्जा प्रदान कर सशक्त और सार्वभौमिक बनाने का बीड़ा भी देश के जाने-माने वैज्ञानिकों, शिक्षा शास्त्रियों तथा लेखकों और अपनी सर्जनात्मक प्रतिभा के लिए सराहे गए वर्ग को राष्ट्रीय उत्तरदायित्व के रूप में स्वीकार कर उठाना चाहिए।

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शिक्षा में सुधार का संकल्प

जगमोहन सिंह राजपूत

नववर्ष के संकल्पों में सरकार और समाज यह भी संकल्प ले कि शिक्षा क्षेत्र जिन सुधारों की बाट जोह रहा है, उन्हें मूर्त रूप देने में विलंब न किया जाए 

 

        एक और साल समापन की और है। यह गुजरता साल भी प्रश्न पत्र लीक होने के कलंक से नहीं बच पाया। हाल में ऐसे दो मामले फिर सुर्खियों में आए। पहला मामला राजस्थान का है। यहां शिक्षक भर्ती परीक्षा का पहला प्रश्न पत्र लीक हो गया। परिणामस्वरूप परीक्षा रद हो गई। अध्यापन प्रशिक्षण की डिग्री लेकर नौकरी के लिए प्रतीक्षारत युवा फिर से निराशा की गर्त में पहुंच गए। दूसरा मामला हिमाचल प्रदेश का है। यहां राज्य कर्मचारी चयन आयोग के एक अधिकारी को परीक्षा से पहले ही हल किया गया प्रश्न पत्र बेचने के लिए गिरफ्तार किया गया। वहां भी परीक्षा रद हो गई। ऐसे मामले केवल दो राज्यों तक सीमित नहीं, किंतु कुछ राज्यों में इसने एक व्यवस्था का रूप ले लिया है। जैसे राजस्थान, जहां मौजूदा सरकार के कार्यकाल में ही दस बार बड़े स्तर पर प्रश्न पत्र लीक हुए हैं। हर बार मुख्यमंत्री अशोक गहलोत वही बात दोहराते हैं कि जांच होगी और दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा, लेकिन इस बार तो उन्होंने यहां तक कह दिया कि दूसरे राज्यों में भी तो ऐसा होता रहता है। निःसंदेह, तथ्यों के आधार पर उनकी बात गलत नहीं, लेकिन ऐसे बयान पीड़ित परीक्षार्थियों की संवेदनाओं पर और तीखा प्रहार करते हैं । इतना संवेदनहीन बयान  कुछ और नहीं, बल्कि कार्यसंस्कृति में घोर अकर्मण्यता की सत्तासीनों द्वारा स्वीकार्यता की कहानी ही कहता है। 

      हाल में ही शिक्षा के मोर्चे पर राजस्थान का कोटा शहर भी गलत कारणों से चर्चा में रहा। प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के गढ़ के रूप में स्थापित हो चुके चंबल किनारे बसे इस शहर में कोचिंग सेंटरों की आपसी होड़ में मोहरे बनते छात्रों पर आकांक्षाओं का बोझ उनकी जिंदगी को लील रहा है। इस साल वहां करीब 15 छात्र आत्महत्या कर चुके हैं। इस पर बड़ी चिंता जताई जा रही है। कोचिंग सेंटरों को जवाबदेह बनाने के साथ ही सेंटरों को जवाबदेह बनाने के साथ ही शिक्षा की आदर्श संस्कृति स्थापित करने का जन दबाव बढ़ रहा है, लेकिन राज्य की सरकार को तनिक भी चिंता नहीं लगती। यही कारण है कि संवेदनहीनता के मामले में मुख्यमंत्री गहलोत से एक कदम आगे निकलते हुए राज्य के एक कदम आगे निकलते हुए राज्य के एक अन्य मंत्री ने कोटा की ‘कोचिंग फैक्ट्री’ को एक झटके में ही क्लीन चिट दे दी कि छात्रों की आत्महत्याओं का कोचिंग से कोई लेनादेना नहीं और ये संस्थान सभी स्थापित दिशानिर्देशों का पालन करते हुए अपना संचालन कर रहे हैं। जबकि सामान्य धारणा यही है कि कोटा में सब कुछ सही नहीं है। वहां जो प्रशिक्षण पद्धति अपनाई जाती है, वह बच्चों के बौद्धिक, मानसिक विकास के लिए उपयुक्त नहीं है। वह बच्चों पर अनावश्यक दबाव डालकर उन्हें तनाव से ग्रस्त करती है। उसमें त्वरित सुधार की आवश्यकता है। 

अवधेश राजपूत

        यह किसी से छिपा नहीं रहा कि कोचिंग संस्थान छात्र को ‘सीखने के आनंद’ की अनुभूति कराने और उसकी समग्र प्रक्रिया से गुजारने के बजाय केवल ‘कम से कम समय में उत्तर देने का कौशल सिखाने समय’ में उत्तर देने का कौशल सिखाने में विश्वास करते हैं। प्रक्रिया से अधिक परिणाम पर उनका ध्यान होता है, क्योंकि जितना बेहतर परिणाम होगा, उतना ही उनका लाभ बढ़ेगा। प्रश्न पत्र लीक के कई मामलों की जब गहन जांच-पड़ताल होती है तो उसमें कोचिंग से जुड़े लोगों के नाम भी अक्सर सामने आते हैं। ऐसे में पर्चा लीक करने वाले माफिया और कोचिंग संचालकों को संदेह का लाभ नहीं दिया जा सकता। अधिक से अधिक परिणाम लाने की उत्कंठा कोचिंग वालों के साथ ही कुछ छात्रों और अभिभावकों को भी अनुचित राह पकड़ने से नहीं रोक पाती । यही कारण है कि प्रश्न पत्र लीक का व्यवसाय लगातार फल-फूल रहा है, लेकिन इसकी कीमत चुकानी पड़ती है परिश्रमी विद्यार्थियों को ऐसे विद्यार्थी जो कड़ी मेहनत करते हैं और जिनका काफी कुछ दांव पर लगा होता है, वे इस दुरभिसंधि के कारण ठगे रह जाते हैं। कई बार इसकी दुखद परिणति आत्महत्या रूप में सामने आती हैं। ऐसे में कोटा में बढ़ रहे आत्महत्या के सिलसिले को इससे अलग करके नहीं देखा जा सकता ।

      इनके अतिरिक्त नकल माफिया ने भी शिक्षा जैसे पवित्र क्षेत्र को कलंकित करने का काम किया है। आखिर यह नकल माफिया कौन चलाता है ? कौन सहयोग देता है? उसके संबंध कहां तक जुड़े हैं? उसकी पहुंच कहां तक है ? ऐसे तमाम सवालों के जवाब सार्वजनिक दायरे में होते हैं, लेकिन सरकारें इनसे बेखबर या आंखें मूंदे रहती हैं। मध्य प्रदेश का व्यापम घोटाला इसका एक उदहरण है। ऐसे माफिया की नेटवर्किंग क्षमता की मिसाल दर्शाती है यह शिक्षा माफिया शासन-प्रशासन में प्रत्येक स्तर तक तिकड़म भिड़ाने में माहिर होता है। इसका भयावह परिणाम लाखों मेधावी छात्रों को भुगतना पड़ता है, जिनके स्थान पर अपात्र लोग चुनकर आ जाते हैं। ऐसे तमाम मेधावियों की पारिवारिक पृष्ठभूमि अत्यंत सामान्य होती है। उनके अभिभावक किसी प्रकार संसाधन जुटाकर उनके सपनों में रंग भरने के लिए हरसंभव प्रयास करते हैं, तो ये छात्र भी अपनी और से कोई कोर-कसर शेष नहीं रखते, लेकिन पर्चा लीक होने या नकल माफिया की साठगांठ के आगे परास्त हो जाते हैं। ऐसे में उनमें और उनके अभिभावकों में तनाव बढ़ना बहुत स्वाभाविक है। 

       वास्तव में कोचिंग संस्थानों पर अभिभावकों की बढ़ती निर्भरता और युवाओं की उस प्रक्रिया से गुजरने की मजबूरी संस्थागत शिक्षा पद्धति की सर्वविदित असफलता का प्रकटीकरण ही है। सरकारी स्कूलों में नियमित अध्यापकों की कमी, शिथिल कार्यसंस्कृति, अध्यापकों के के चयन में बंगाल जैसे अनैतिक घोटाले, शिक्षित माता-पिता का अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए बच्चों को किसी व्यवसाय विशेष में जबरदस्ती भेजना और बच्चों की इच्छा को किनारे कर कोटा जैसी ‘कड़ाही’ से गुजरने को मजबूर करना उचित नहीं कहा जा सकता। इससे न केवल बच्चों की नैसर्गिक प्रतिभा नष्ट होती है, अपितु वे कुंठित भी होते जाते हैं। यह उनके समग्र विकास में बाधक बनता है, जिसके नतीजे अक्सर आत्मघाती होते हैं। ऐसे में नववर्ष पर लेने वाले संकल्पों में सरकार और समाज का एक संकल्प यह भी होना चाहिए कि शिक्षा क्षेत्र जिन सुधारों की बाट जोह रहा है, उनको मूर्त रूप देने में अब विलंब न किया जाए।

Gird

 

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MERA SAMARTH BHARAT TALK – 1 by Padma Shri Prof J S Rajput Ji on 27th July 2019

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