आदर्श का अभाव

आज के अधिकांश युवाओं के समक्ष प्रतिस्पर्धा का दबाव और जीविकोपार्जन की अनिश्चितता लगातार तनाव देती रहती है। यह स्थिति और गंभीर हो जाती है जब उसके चारों ओर के परिदृश्य में ‘स्वार्थ और स्वजन’ हर समय उसके समक्ष बाधा बनकर खड़े हो जाते हैं

– जगमोहन सिंह राजपूत

आजादी के शुरुआती दस-पंद्रह सालों में भारत के युवाओं ने जो राजनीतिक वातावरण और सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक स्थिति देखी, उसका अनुमान लगाना आज के उसी आयुवर्ग के युवाओं के लिए निश्चित ही कठिन होगा। गांधीजी भौतिक स्वरूप में दृश्य पटल से जा चुके थे, लेकिन उनकी उपस्थिति- और उनके द्वारा प्रशिक्षित व्यक्तियों और राजनेताओं की भौतिक उपस्थिति लगभग हर कार्यकलाप में, हर चर्चा, परिचर्चा और स्थान पर अनुभव की जा सकती
थी ।
छुआछूत संविधान ने अस्वीकृत कर दिया था, मगर उसे सामाजिक स्तर पर स्वीकार कर पाने में समय लग रहा था। गरीबी अत्यंत कष्टकर स्तर पर व्याप्त थी । अनेक शहरों और कस्बों में दो शब्द- रिफ्यूजी और रिफ्यूजी कालोनी – सामान्य चर्चा में आते थे, विभाजन की विभीषिका ने लोगों को भीषण कष्ट दिए थे, लेकिन उनके बीच सामान्य संबंधों को पंथ या संप्रदाय के आधार पर विकृत नहीं किया था।

यह अपने आप में अद्भुत था, और संभवत: भारत और उसकी प्राचीन संस्कृति में ही संभव हो सकता था। इसका जो मुख्य कारण सामान्य चर्चाओं में उभरता था, वह था – भारत की प्राचीन संस्कृति और जीवन पद्धति की व्यावहारिकता में घुली मिली विश्व-बंधुत्व की भावना । अंतत: सभी अपने ही माने गए। इसी कारण विभाजन लोगों के दिलों को नहीं बांट सका।
उस समय विद्यार्थियों में अधिकांश चर्चा देश के बड़े-बड़े नायकों और बलिदानियों के इर्द-गिर्द ही घूमती थी। जो सत्ता में थे, वे बापू के आदर्शों को भूले नहीं थे। सत्ता से संचय और संग्रहण के फेर में न स्वयं पड़े थे, न ही उनके परिवार उसके दलदल में घिरे थे। इनमें से सभी के जीवन की अनेक घटनाओं से लोग परिचित थे।

मसलन, जब गांधीजी चंपारण पहुंचे और वहां की स्थित देखकर वहीं रुकने का निर्णय किया, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, ब्रजकिशोर बाबू जैसे बिहार के कई नामी-गिरामी वकील उनसे जुड़े। वे अपने परिश्रम और प्रतिभा से समृद्ध हुए थे, कहीं आते-जाते थे तो उनका पूरा लाव-लश्कर साथ जाता था। उनकी रसोई अलग-अलग बनती थी। गांधी ने इन सबको सामूहिक रसोई में भागीदारी करने को तैयार किया, जो उस समय की सामाजिक अवस्था में असंभव माना जाता था।
गांधी के संपर्क में आकर इनमें अद्भुत परिवर्तन हुआ। जिसके पास अनेक मोहर्रिर, सहायक, सेवक आदि का बड़ा काफिला था, वे लोग स्वयं किसानों की शिकायतें लिखने में अपना समय लगाने लगे! गांधीजी की आत्मकथा में इसका वर्णन आज भी आंखें खोलने वाला है। छठे-सातवें दशक के युवा उस समय सत्ता में पहुंचे नेताओं के त्याग, तपस्या और समर्पण की ही चर्चा करते थे।

महाविद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों में अनुकरणीय आचरण के विद्वानों से लगभग प्रतिदिन साका पड़ता था। इन सबसे मिलने-जुलने से मानवीय मूल्यों, सामाजिक और राष्ट्रीय उत्तरदायित्वों से स्वत: परिचय हो जाता था। ऐसे लोग गांव, कस्बे, शहर में आमने-सामने दिखाई दे जाते थे। युवाओं में नेताजी सुभाषचंद्र बोस के प्रति अद्वितीय अपनत्व का भाव था। उनका नाम जोश भर देता था और आगे की चर्चा फिर भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, चंद्रशेखर आजाद, खुदीराम बोस तथा अनेक शहीदों के संबंध में बढ़ती जाती थी। इनमें सभी युवा बढ़-चढ़ कर भागीदारी चाहते थे।


कुलपतियों की प्रतिष्ठा अद्वितीय विद्वान, सदाचरण के स्तंभ के रूप में सराही जाती थी। आचार्य और कुलपति से मिल कर विद्यार्थी अपने को धन्य मानता था। इनसे संपर्क करने में कोई व्यवधान नहीं आता था। आचार्य वर्ग को श्रेष्ठता के शिखर-समूह व्यक्ति के रूप में स्वीकार किया जाना केवल प्राचीन भारत की कथाओं में वर्णित नहीं था, उसे व्यवहार में देखा जा सकता था। विश्वविद्यालय के स्तर पर कोई ट्यूशन करेगा या कोचिंग संस्थान में जाएगा, ऐसी कल्पना भी संभव नहीं थी। इसे भी महत्त्वपूर्ण माना जाना चाहिए कि मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों तथा अन्य राजनेताओं का जनमानस में अत्यंत आदर था। वह अब सब तिरोहित हो चुका है।


आज स्थिति में घनघोर बदलाव हुआ है। वर्तमान समय में नेताओं तथा चयनित प्रतिनिधियों के प्रति वह पचास-साठ वर्ष पहले वाला आदरभाव, विश्वास और श्रद्धा देख पाना असंभव हो गया है। अपवाद स्वरूप जो भी व्यक्ति राजनीति में आकर – और सत्ता में पहुंचकर – अपने कार्यकलाप केवल धन-वैभव संग्रहण और स्वजन-पोषण तक सीमित नहीं कर देता है, उसे पूर्वाग्रहों से मुक्त हर मानस अपनत्व के साथ स्वीकार कर लेता है। राजनीति में ऐसे लोग आज भी अपवाद स्वरूप उपस्थित हैं जो बहुजन सेवा को परिवार सेवा से अधिक महत्त्व देते हैं।

अगर सकारात्मक परिवर्तन होगा तो ऐसे लोगों की उपस्थिति और प्रेरणा से ही संभव होगा। सत्ता और दलगत राजनीति से हटकर अनगिनत लोग और संस्थाएं आज भी पूरी तन्मयता से जनसेवा में लगी हुई हैं, यद्यपि यहां भी प्रदूषण फैला है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। आज के युवा के समक्ष एक मुक्त आकाश खुला है चर्चा परिचर्चा के लिए।


आज के अधिकांश युवाओं के समक्ष प्रतिस्पर्धा का दबाव और जीविकोपार्जन की अनिश्चितता लगातार तनाव देती रहती है। यह स्थिति और गंभीर हो जाती है जब उसके चारों ओर के परिदृश्य में ‘स्वार्थ और स्वजन’ हर समय उसके समक्ष बाधा बनकर खड़े हो जाते हैं। आज युवा को हर समय यह आशंका बनी रहती है कि कब उसकी प्रतियोगी परीक्षा का प्रश्न-पत्र कुछ लोग बड़ी रकम देकर खरीद लें, और वह देखता रह जाए। देश के लिए यह अत्यंत चिंता का विषय होना चाहिए। सरकारी नियुक्तियों के लिए अधिकृत अधिकांश संस्थाओं की साख और स्वीकार्यता अप्रत्याशित स्तर तक घटी है।

नियुक्तियों में समय लग जाना कोई बड़ी बात नहीं रह गई है। चुनाव लोकतंत्र की वह कुंजी होनी चाहिए, जो ‘मालिक मतदाता’ को व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिए सही व्यक्ति चुनने की व्यवस्था बने, और अगर वह सर्वजन को भूलकर स्वजन तक सीमित रह जाए तो उसका विकल्प स्थापित कर सके।

आज यह संभावना इतनी लचर हो गई है कि सामान्य जन इसकी वास्तविक स्थति को समझ चुका है। उसकी अपेक्षाएं संकुचित हो गई हैं, उसका उत्साह मंद पड़ गया है। वह इतना परिपक्व अवश्य हो गया है कि वोट के महत्त्व को समझता है, वोट देता है, मगर चुनाव केंद्र से बाहर आते समय उसके चेहरे पर आशा और अपेक्षा का वह उत्साह दिखाई नहीं देता, जो उसके पुरखों के हाव-भाव में झलकता था। स्वजन और परिजन को लेकर जो दुराव लोगों और सत्ता के बीच उत्पन्न हो गया है उसे मिटाना आवश्यक है।

अकूत धन संग्रह करने वाले चयनित प्रतिनिधियों तथा सरकारी खजाने से वृत्ति पाने वाले नौकरशाहों के वर्ग से अगर भ्रष्ट आचरण समाप्त किया जा सके, तो अन्य स्तरों पर यह स्वत: ही घट जाएगा। ऐसा होने पर पारस्परिकता बढ़ेगी, जनता का व्यवस्था पर विश्वास बढ़ने लगेगा, देश के वातावरण में लोकतंत्र की सकारात्मक उपस्थिति हर ओर दिखाई देगी।
तभी हम गांधीजी के इन वाक्यों का अर्थ समझ सकेंगे: ‘अगर स्वराज का अर्थ हमें सभ्य बनाना और हमारी सभ्यता को अधिक शुद्ध और मजबूत बनाना न हो, तो वह किसी कीमत का नहीं होगा। हमारी सभ्यता का मूल तत्त्व ही यह है कि हम अपने सब कामों में, फिर वे निजी हों या सार्वजनिक, नीति के पालन को सर्वोच्च स्थान देते हैं।’ अगर इसका मन्तव्य समझ जा सकें, . तो सर्वजन कल्याण का मार्ग स्वत: ही प्रशस्त हो जाएगा।

 

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India charted a neutral path despite pressures

India charted a neutral path despite pressures

THE NPT IS MULTILATERAL AGREEMENT WITH 189 STATES AND FIVE OFFICIAL NUCLEAR NATIONS THE CTBT WAS APPROVED BY THE UN GENERAL ASSEMBLY ON SEPTEMBNER 1996. INDIA IS NOT A SIGNATORY TO BOTH OF THESE

– J. S. Rajput

India stands with its head high because its political leadership displayed courage and futuristic vision in remaining out of the NPT and CTBT

The Russia-Ukraine war impacts practically every nation in one way or the other. Ukraine gets its aid, support and weapons from NATO nations. Sanctions by the US and its allies no longer create any major concerns amongst the targeted nations which have learnt to face such sanctions. India has solved its oil import issue and is in a much better position than before. The War has already lasted for around sixteen months but there seems to be no leeway in peace efforts, if at all these are underway!

Common people are unaware of any concrete steps being undertaken in this regard.

Apart from the fact that every war invariably inflicts misery, death and destruction, the tragedy is that the Ukraine war stands routinized in the eyes of common people. All of the UN agencies and human rights initiatives appear strikingly helpless in such situations. Think of Afghanistan which has suffered for decades together, throwing thousands of survivors into inhuman misery. Generations continue to suffer, Russians came, and Americans came, both pretending to be their saviours. They left with heads bowed down, leaving Afghans in a state of perpetual misery, with no signs of any redressal in future.

Think of children, particularly girls, most of whom lost not only their childhood but also the most creative and contributing years of life, without education or skill acquisition. There are other nations also that suffer uninterrupted internal strife and rampant violence. While the scholars of the global political scenario may be deciphering the intentions of the warring nations, the suffering citizens, children and women of Ukraine would take decades together to return to normalcy even after the war and internal strife could be managed.

The reconstruction would take an unfathomable measure of resources and time.

 At present there is no hope of a thaw. This war stands routinized for the print media.

Electronic media offers content and helps them run 24X7 shows. Even when Alexander Lukashenko, the President of Belarus warned on June 13 of 2023 that he will not hesitate to use nuclear weapons if his country faces aggression, not many paid much attention to it. In an attempt to warn the US and NATO nations of their support to Ukraine, President Putin made his intentions clear to everyone that he intends to deploy nuclear weapons in Belarus Russia’s ally in this war. The threat of a nuclear war could be a reality!

It is also time to reflect on the global farce going paraded in the name of the NPT – Nuclear Non-Proliferation Treaty, and the Comprehensive Test Ban Treaty; CTBT. In December 1953 US President Dwight D. Eisenhower presented his proposal on “Atoms for Peace” to the UN General Assembly to create an international organization that may guard against the proliferation of nuclear weapons and promote peaceful uses of nuclear energy. It led to the establishment of the International Atomic Energy Agency –IAEA – in 1957. Amongst several developments, The NPT was opened for signatures in 1970. It is a multilateral agreement with 189 States and five ‘official’ nuclear nations.

The CTBT was approved by the UN General Assembly on September 1996 and opened for signatures on September 24 of 1996. India is not a signatory to both of these. CTBT and NPT indeed remain discriminatory not only in percept but also the practice. Does it not astonish that a couple of nations appropriate certain privileges for themselves that they could conduct nuclear tests – but expect others not to enter that privileged area? India has consistently continued its research in areas of its choice and has never surrendered to the bullying nature of certain well-known pressures. Today, India stands surrounded by two rouge nuclear nations that have all along been a security risk.

The US was the first to have successfully conducted an atomic explosion on July 16, 1945. It was also the first and the last to have dropped atomic bombs on the civilian population, that too within a month; August 6, 1945, on Hiroshima and on August 9, 1945, on Nagasaki. Almost four years later, USSR conducted its atomic explosion on August 29, 1949. The UK became a member of this club on October 30, 1952; and France on February 13, 1960. All four were members of the UN Security Council with Veto rights. China conducted its first nuclear explosion on October 16 of 1964. It could get an entry only in 1971. One must appreciate the Indian political leadership for having realized the nature of NPT and CTBT that are the creations of the imperialists of yesteryears. They were and remain keen to explore and insert such treaties and provisions that would shackle the developing nations that were just out of the yoke of colonialism. During the one-year period, the numbers for US and Russia came down; 5428 to 5244 for the US and from 5977 to 5899 in the case of Russia. Numbers remain the same in the case of France and the UK; at 290 and 225 respectively. India and Pakistan possess 164 and 170 nuclear weapons at this stage. Israel and South Korea are the other players at 90 and 30 only. The estimated number of Atomic Weapons globally is 12,512 in January 2023. Of these, 9576 were ready for the use of respective defence forces.

It is also estimated that 3844 of these are fitted to missiles and fighter planes, ready to strike ahead the moment they receive the command! Apart from the fabulous- five, India and Pakistan are also nuclear nations. So are Israel and North Korea.

There could be one or two more also that remain permanent suspects in the eyes of the US and Israel. Imagine the vulnerability of India’s security if it had not become a nuclear power. India now stands with its head high only because its political leadership, irrespective of opposite political ideologies, did not compromise on national safety and security, and displayed courage and futuristic vision in remaining out of the NPT and CTBT. In June it was noted that India could take its own stand – in national interest –and NATO powers could not intimidate it by imposing sanctions.

One could also time to recall with gratitude the role of Dr Homi Jahangir Bhabha in envisioning the nuclear needs of free India, and persuading the Tatas to establish the first and only research institute in nuclear physics in India in 1945; The Tata Institute of Fundamental Research –TIFR. He was also responsible for the creation of the Department of Atomic Energy- DAE – in 1958. Several other initiatives followed. Under the leadership of Dr Bhabha, India created its own high standards of research in nuclear sciences. The experience of the 1971 war with Pakistan made Indian political decision-makers think afresh. Prime Minister Indira Gandhi approved nuclear tests, and these, now known as Pokhran-I were conducted on May 18, 1974. Atal Bihari Vajpayee made it happen again, and the Pokhran-II happened on May 11, and May 13 of 1998. It is the preparedness achieved by India that stands guarantee against its belligerent neighbours.

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व्यग्रता, उग्रता और समग्रता

– जगमोहन सिंह राजपूत

दीर्घकालीन परिप्रेक्ष्य में समाधान के लिए शिक्षा की ओर ही जाना होगा। प्रारंभिक वर्षों में सभी बच्चों को सभी पंथों की समानता के पाठ पढ़ने होंगे, भिन्नताओं का आदर करना सीखना होगा।

पिछले कुछ दशक में आतंकवाद और पांथिक कट्टरवाद जिस तेजी से फैला है, उससे सारे विश्व में व्यक्तिगत और सामूहिक असुरक्षा के इतने आयाम उभरे हैं कि हर देश को सुरक्षा पर अतिरिक्त और अनावश्यक बोझ उठाना पड़ रहा है। जो देश एक जाति, पंथ, भाषा, संस्कृति में रहने के आदी थे, उन्हें अब अनेक संस्कृतियों, भाषाओं, पंथों और अपेक्षाओं के जनसंख्या समूहों के साथ रहना सीखना पड़ रहा है। ये स्थितियां मानव जीवन में असहजता उत्पन्न करती हैं, पारस्परिक अविश्वास को लगातार बढ़ा रही हैं। अधिकांश युवाओं को अपना भविष्य असुरक्षित, अनिश्चय और निराश से भरा दिखता है। नहीं तो क्या कारण है कि लगभग हर प्रकार की विविधता की स्वीकार्यता के लिए सराहा जाने वाला भारत आज तक यह नहीं सीख पाया कि धार्मिक जुलूस बिना किसी तनाव या हिंसा के संपन्न हो सकें?

भारत ही दिखा सकता है विश्व स्तर पर भाईचारा स्थापित करने का रास्ता
पश्चिम के कई विद्वानों ने माना है कि अगर विश्व स्तर पर भाईचारा स्थापित करना है तो उसका रास्ता भारत ही दिखा सकता है। इसी देश ने विश्वबंधुत्व की भावना को साकार करके दिखाया। इस संस्कृति में हिंसा, अत्याचार या किसी पंथ विशेष के प्रति किसी भी प्रकार की दुर्भावना का कोई स्थान नहीं था। भारत से अपेक्षा की जा रही है कि आज की विकट वैश्विक परिस्थितियों में वह अपना उत्तरदायित्व मान कर शांति का रास्ता दिखाए। इसके लिए उसे सबसे पहले अपने घर सामाजिक सद्भाव और पांथिक समरसता को पूरी तरह स्थापित करने का उदाहरण प्रस्तुत करना होगा। किसी भी विद्यार्थी, व्यक्ति या समुदाय में दृष्टिकोण परिवर्तन कराने का सबसे सशक्त उपाय है उनके समक्ष अपेक्षित आचरण का उदाहरण प्रस्तुत करना ।

संवाद के बिना पूर्वाग्रह बढ़ता है, जो हिंसा को जन्म देता है
कहीं भी और कभी भी समस्याओं के समाधान का सबसे सशक्त रास्ता निर्मल संवाद ही होता है। इसमें जब पूर्वाग्रह हावी हो जाते हैं, तब यह मात्र एक ढकोसला बन कर रह जाता और हिंसा तथा उग्रता को जन्म देता है। कितने ही दशकों से लगातार चल रही परमाणु निरस्त्रीकरण पर बैठकों से क्या कुछ भी सार्थक निकल सका? इनमें भाग लेने वाले देश अधिक से अधिक मारक क्षमता वाले हथियारों पर शोध, निर्माण और परीक्षण करते रहे हैं। एक साल से अधिक समय से चल रहा रूस-यूक्रेन युद्ध उन्हें ऐसा ही एक अवसर प्रदान कर रहा है। अधिक उपभोग, अधिक उत्पादन, अधिक बिक्री, अधिक जीडीपी, और भी बहुत कुछ! यूक्रेन के नागरिकों की मनस्थिति की कल्पना करिए, वे किस घुटन में जीवित होंगे, हर पल कितनी ही आशंकाएं उन्हें घेरे रहती होंगी!

सामान्य नागरिक इस स्थित से निकलने को कितना व्यग्र होगा, युवाओं में यह व्यग्रता दबी हुई उग्रता में परिवर्तित हो चुकी होगी। अफगानिस्तान, म्यांमा जैसे देशों में युवाओं के जीवन में जो कांटे बोए गए हैं, वे तो निश्चित ही तीव्र आक्रोश और उग्रता पैदा करेंगे ही। मजहबी कट्टरपन से उत्पन्न फिदायीन जैसी प्रवृत्तियां वैश्विक शांति स्थापना के प्रयासों में जबर्दस्त व्यवधान उत्पन्न कर रही हैं। यूरोप के देशों में विविधताओं के प्रति आशंकाओं के कारण जो स्थितियां उत्पन्न हो रही हैं, वे भी समग्रता और सद्भाव बढ़ाने में नकारात्मक योगदान ही कर रही हैं ।
इस समय वैश्विक स्थिति यह है कि उत्पादन, व्यापार और बाजार के इर्द-गिर्द आर्थिक स्थिति सुधारने पर ही सभी देशों का ध्यान केंद्रित है। अगर शिक्षा व्यवस्थाएं केवल ‘एक बड़े पैकेज’ पर ध्यान केंद्रित करती रहेंगी, तो नैतिकता, संवेदना, सहयोग, समग्रता जैसे व्यक्तित्व विकास के परम आवश्यक तत्त्व केवल पुस्तकों में रह जाएंगे ! विकास और वृद्धि के लिए एक मजबूत अर्थतंत्र आवश्यक है, लेकिन हर व्यक्ति की मूलभूत मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लक्ष्य को पीछे छोड़कर नहीं । वृद्धि और विकास ही प्रगति की संपूर्णता के द्योतक नहीं हो सकते, जब तक कि उसमें मानवीय तत्त्व और विशेषकर आध्यात्मिक चेतना से परिचय सम्मिलित न हो।

विकास की वर्तमान अवधारणा में धनाढ्य होना या उसके लिए प्रयास करना अपराध नहीं माना जाता। बड़े उत्पादक संयंत्र चाहिए, रोजगार चाहिए, लगभग हर महत्त्वपूर्ण क्षेत्र में निवेश चाहिए, जिसके लिए सरकारों पर आश्रित रहने के नकारात्मक परिणाम बड़े स्तर पर देखे जा चुके हैं। भारत ने अपनी उन नीतियों को 1990-91 में बदला। आज देश में खरबपतियों की संख्या लगातार बढ़ रही है, इनमें से कुछ वैश्विक सूची में शिखर या उसके करीब तक पहुंच गए। मगर इस स्थिति के अन्य पहलू भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं ।
कोरोना काल के समय प्रारंभ की गई मुफ्त राशन की व्यवस्था बहुत कुछ कहती है। देश में बड़े- बड़े अस्पताल बने, विदेश से लोग भारत में चिकित्सा कराने आने लगे, लेकिन इनमें से ऐसे कितने हैं, जिनके संबंध में कहा जा सके कि वहां व्यवस्था केवल व्यापार पर आश्रित नहीं है। उस व्यक्ति की व्यथा समझिए, जो उनके अंदर प्रवेश नहीं कर पाता है। विकास की अवधारणा में पंक्ति के अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति की मूलभूत आवश्यकताओं की अनदेखी आंतरिक व्यथा को जन्म देती है, जो उग्रता से बहुत दूरी नहीं रखती।
किसी भी व्यग्र व्यक्ति या समूह का किसी भी समय उग्र हो जाना स्वाभाविक प्रतिक्रिया है। हिंसा के वैश्विक स्तर पर फैलाव को इस निगाह से भी विश्लेषित करना होगा। हर तरफ जिस तेजी से अप्रत्याशित परिवर्तन हो रहे हैं, उसमें अनेक प्रकार की नई समस्याओं तथा मनुष्य-जनित आपदाओं से सामना तो होना ही है। इसमें सफलता तभी मिलेगी जब सभी देश यह स्वीकार करें कि हर व्यक्ति को विविधताओं की स्वीकार्यता के साथ रहना सीखना होगा।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद बनी अनेक अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से अपेक्षा थी कि वे समस्याओं के समाधान समग्रता के आधार पर निकाल सकेंगी और राष्ट्रीय स्तर की समस्याओं के समाधान में भी प्रत्येक देश की सरकार के साथ सहयोग कर सकेंगी। यूनेस्को और यूनीसेफ जैसी संस्थाएं शांति स्थापना के प्रयासों में सीमित स्तर पर सहायता करने का प्रयास कर रही हैं, लेकिन सुरक्षा परिषद जैसी संस्थाएं आज भी साम्राज्यवादी तरीके अपनाए हुई हैं।
अगर वैश्विक स्तर पर समग्रता के लिए ऐसे परिवर्तन आवश्यक हैं, तो जमीनी स्तर पर भी बहुत कुछ किया जाना है। आज भी ऐसी शिक्षा व्यवस्थाएं हैं, जो किसी पंथ, नस्ल या जाति विशेष की श्रेष्ठता के पाठ प्रारंभिक वर्षों में पढ़ाती हैं। क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है कि इक्कीसवीं सदी में भी तरुणों को फिदायीन बनाने की नियमित प्रक्रियाएं चालू हैं। सार्वभौमिक शिक्षा के महत्त्व को मनुष्य जाति समझ चुकी है और इसके लिए बीसवीं सदी में वैश्विक स्तर पर सराहनीय संगठित प्रयास किए गए, जो अब भी जारी हैं। इससे अरबों लोगों में एक सम्मानपूर्ण मानवीय जीवन जीने की उत्कंठा बढ़ी है। सामाजिक स्तर पर सदियों से कुछ समूहों की दुर्भावना झेलते रहे समुदाय अब उसके लिए तैयार नहीं हैं। इस दिशा में व्यावहारिक स्तर पर अब भी बहुत कुछ बदलना बाकी है।
ज्ञान समाज और बौद्धिक आर्थिकी ही नहीं, कृत्रिम बुद्धिमत्ता के उभरते स्वरूप से आच्छादित विश्व में जो देश आंतरिक भेद-विभेद में उलझे रहेंगे, वे निश्चित ही पीछे रह जाएंगे। इस स्थित का विश्लेषण कर उसके समाधान के लिए त्वरित उपाय आवश्यक हैं। दीर्घकालीन परिप्रेक्ष्य में समाधान के लिए शिक्षा की ओर ही जाना होगा। प्रारंभिक वर्षों में सभी बच्चों को सभी पंथों की समानता के पाठ पढ़ने होंगे, भिन्नताओं का आदर करना सीखना होगा। यही सबसे सशक्त समाधान तक पहुंचने का रास्ता है। यही समग्रता का आधार बन सकता है।





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भारतीय राजनीति का छिछला स्तर, स्वाभिमानी नागरिकों को शर्मिंदा करता है अस्वीकार्य शब्दों का प्रयोग

 

कप्तान कोहली के साथ टीम इंडिया के खिलाड़ी (एपी फोटो)

भारत के वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य को दो शब्दों में समेटा जा सकता है-व्यग्रता में उग्रता। इसका सबसे बड़ा उदाहरण बनकर उभरे हैं दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल। अन्ना हजारे के नाम पर मिली प्रसिद्धि के बाद उन्हें अपने सारे वादे भूल जाने में कोई समय नहीं लगा

– जगमोहन सिंह राजपूत

वैसे तो इन दिनों नैतिकता के ह्रास का प्रभाव चौतरफा देखा जा रहा है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से देश की राजनीति में जिस प्रकार के अस्वीकार्य शब्दों का प्रयोग हो रहा है, वह भारत के किसी भी स्वाभिमानी नागरिक को शर्मिंदा करता है। एक संस्कारवान समाज में कुछ लोगों की राजनीतिक महत्वाकांक्षा किस सीमा तक संवेदनशीलता, शालीनता और पारस्परिकता का विध्वंस कर सकती है, वह देश दिन-प्रतिदिन देख रहा है।

1975 के बाद से तो सिद्धांत और नैतिकता आधारित राजनीति की चर्चा तक पर लगभग पूर्ण विराम लग चुका है। इसे लेकर अधिकांश संवेदनशील नागरिक अपने-अपने ढंग से चिंतित हैं। इस समय चुनाव जीतने की पहली सीढ़ी अकूत धनराशि बन गई है, भले ही वह कैसे भी कमाई गई हो। पार्षद, विधायक, सांसद, मंत्री, जैसे अनेकानेक संवैधानिक पदों पर रह चुके नेताओं की संख्या लाखों में तो होगी ही। सत्ता में एक बार पहुंचकर पदच्युत होना इनमें से अधिकांश के लिए बर्दाश्त के बाहर होता है, क्योंकि वे वहां केवल स्व-सेवा के लिए पहुंचे थे, जन सेवा के लिए नहीं।

कुछ तो मानते हैं कि अपने परिवार के स्वतंत्रता संग्राम में ‘अप्रतिम’ योगदान के एवज में सत्ता के शिखर पर बने रहने का ‘दैविक अधिकार’ उन्हें ही प्राप्त है। देश के हर कोने में इस समय कितने ही ऐसे लोग सत्ता में पुनः वापसी के लिए हर प्रकार से प्रयास कर रहे हैं। इनमें लगभग सभी अपने सत्ता से बाहर होने की स्थिति के लिए केवल एक व्यक्ति नरेन्द्र मोदी को ही जिम्मेदार मानते हैं, जिन्होंने उनके लिए पुनः सत्ता में आने के सारे रास्ते अकेले ही बंद कर दिए हैं।

भारत के वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य को दो शब्दों में समेटा जा सकता है-व्यग्रता में उग्रता। इसका सबसे बड़ा उदाहरण बनकर उभरे हैं दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल। अन्ना हजारे के नाम पर मिली प्रसिद्धि के बाद उन्हें अपने सारे वादे भूल जाने में कोई समय नहीं लगा। उनमें सत्ता प्राप्ति की कामना इस तेजी से उभरी कि 2014 में ही वह वाराणसी में नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध चुनाव लड़ आए। अभी भी वह हर राज्य में भावी मुख्यमंत्री की घोषणा जिस अंदाज से करते हैं, वह उनकी बढ़ती व्यग्रता को ही दर्शाता है।

आजकल उन्होंने पढ़े-लिखे लोगों पर ध्यान केंद्रित कर दिया है। कई वर्षों से उन्होंने कट्टर ईमानदारी शब्द का जमकर उपयोग किया। वह कई बार अपने मंत्रियों के संबंध में यह भी कह चुके हैं कि ‘मैंने पेपर देख लिए हैं, कुछ भी गलत नहीं है, व्यक्ति तो कट्टर ईमानदार है, बस बदले की राजनीति का शिकार है।’ वह आइआइटी में पढ़े हैं, आइआरएस रहे हैं और मानते हैं कि इतनी ऊंची डिग्री और विशिष्टता प्राप्त करने के पश्चात उनका कहा गया हर वाक्य ब्रह्म वाक्य माना जाना कहिए। उनके एक मंत्री फर्जी डिग्री प्रकरण में दोषी पाए गए थे। उसके लिए देश से क्षमा किसी ने नहीं मांगी। वह भी कट्टर ईमानदार की श्रेणी में ही रखे गए थे।

लगता है अरविंद केजरीवाल फर्जी-डिग्री प्रकरण के उस कष्ट को भूल नहीं पाए हैं। उन्हें लगता है कि यदि नरेन्द्र मोदी की डिग्री किसी तरह फर्जी घोषित हो जाए तो इसका व्यापक राजनीतिक लाभ संभव है। मनुष्य अपने कष्ट के निवारण के लिए क्या-क्या सुनहरी संकल्पनाएं नहीं करता है। अपनी लगातार बढ़ती आंतरिक पीड़ा से मुक्ति पाने के लिए उन्होंने प्रधानमंत्री को बिना पढ़ा-लिखा घोषित करना उचित माना। इसे बार-बार दोहराने में उन्हें कोई संकोच नहीं है।

केजरीवाल समझ ही नहीं पा रहे हैं कि इस तरह वह उन अनगिनत लोगों का अपमान कर रहे, जो उनके अनुसार अनपढ़ माने जाने चाहिए। वह भूल गए हैं कि इस देश की विकास यात्रा में सबसे बड़ा योगदान तो उन अनपढ़ किसानों का है, जिन्हें उनके जैसे लोग रूढ़िवादी कहते हैं। कृषि में नए तरीके अपनाकर देश की भूख को मिटाने में उन किसानों का अहम योगदान है।

दिल्ली में एक और नवाचार लोगों का ध्यान आकर्षित कर रहा है। जब मुख्यमंत्री को मनमाना बोलने की इच्छा होती है- जिस पर कोई केस नहीं हो सकता हो तो तुरंत ही एक दिन का विधानसभा सत्र बुला लिया जाता है। उन्हें उससे अधिक अनुशासित और आज्ञाकारी श्रोता और कहां मिल सकते हैं। अपनी पढ़े-लिखे वाली संकल्पना की उड़ान ने मुख्यमंत्री को इतना विचलित कर दिया है कि उन्हें जब एक कहानी सुनाने की तलब लगी तो तुरंत ही विधानसभा का सत्र आहूत कर लिया गया। विधानसभा में अनपढ़ और पढ़े-लिखे के अंतर की कहानी पूरे मनोयोग से सुनाई गई।

नरेन्द्र मोदी की दोनों डिग्रियां सभी के देखने के लिए वेबसाइट पर उपलब्ध हैं। नरेन्द्र मोदी ने स्वयं कहा है कि उन्होंने नियमित विद्यार्थी बनकर नहीं, मगर पत्राचार के माध्यम से इन्हें प्राप्त किया था। ऐसा देश में लाखों-करोड़ों लोगों ने किया है और ईमानदारी से किया है। उसमें से जितने लोगों ने मोदी-डिग्री प्रकरण के संबंध में जाना होगा, उन्हें कहीं न कहीं अपमान बोध तो हुआ ही होगा। यही नहीं, वे भारतवासी भी जो नरेन्द्र मोदी को आदर देते हैं, आक्रोशित हुए होंगे।

अनेक विद्वानों, चिंतकों, साधकों ने कहा है कि ज्ञान और अध्ययन के क्षेत्र में आप जितना अधिक आगे बढ़ते हैं, आपको उतना ही ज्यादा आभास होता है कि आप कितना कम जानते हैं। इसको सूत्र ‘विद्या ददाति विनयम’ में समाहित किया गया है। दिल्ली के मुख्यमंत्री ही नहीं, अनेक नेताओं को न केवल इसे समझना चाहिए, बल्कि संवेदना और शालीनता को अपनाकर सकारात्मक परिवर्तन से साक्षात्कार करना चाहिए।

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Tagore’s education is for joy and happiness

The education philosophy of Tagore has received acceptance from the modern-day education policymakers

– J. S. Rajput

Gurudev Rabindranath Tagore remains a highly respected intellectual stalwart to most of the Indians who know him as the author of the National Anthem and the recipient of the Nobel Prize for literature in the year 1913 for his renowned collection of poems Geetanjali. The inherent sense of respect stands enhanced when one is informed that he is also the author of the National anthem of Bangladesh. Not only this, the National anthem of Sri Lanka was authored by Ananda Samarakoon while he was a disciple of the Shanti Niketan.

There are clear indications of Tagore’s influence on its words, music and thought. Tagore got his Nobel Prize for literature, but his contributions to music, painting, education, social reforms, and freedom struggle, are also of the highest level. He was the visionary who knew at the very beginning of the 20th century that man’s relationship with nature is going to get seriously imbalanced with the growth of industrialization. Modernization would lead to militarism, and that would push humankind into wars and violence. Violence would be all around, and heartless conflicts would spread across national boundaries. Indications of such a situation developing were already available from the years of WWI. All this attracted the serious attention of humankind only after WWII, but it is evident to everyone that it has been inadequate and disproportionate.

The more one dwells on ideas, vision and philosophy of Tagore, the more one gets convinced of how deeply he had pondered over the elements of outer life and inner life; the spiritual aspects. These get manifested in his writings on education, poems and songs, paintings, and in that great institutional creation, the Shanti Niketan. He was really worried and anxious about the growing materialism in the West, which he found ‘leaning towards the path of destruction’. It’s now very well realized that he was prophetic in this context, as humanity today is struggling with issues of pollution, potable water crises, melting glaciers, deforestation, dying rivers, and much more. Tagore was convinced that only thinking minds; free minds, and creative minds could recreate the symphony between man and nature, the only Mantra for the survival of humanity on the planet Earth. Devi Prasad, a former student of Shanti Niketan, writes: “

The aim of the educational philosophy of Rabindranath was to maintain harmony with a social and natural atmosphere so that everybody would be able to develop all creative capabilities from the very beginning of his or her life. His plan was to make education a means by which the child’s mind and body should be able to keep in harmony with the rhythm of nature.” He illustrated to anyone interested the difference between the growth and development of children sitting in a room confined to their chair and desk for hours together, to those in the open air environment, running around the trees, plants, bushes, birds and friendly animals! Here they experience the joy of childhood, the happiness of existence, when all this they learn on their own. Keeping them away from nature snatches away the vital of learning from nature and developing an empathetic cord of empathy with nature. It eventually contributes to an increase of distrust, greed, avoidable and unnecessary accumulation and non-comprehension of man’s responsibility toward nature.

The solution lies in the growth and development of every child in natural conditions without imposing unnecessary restrictions. Children are happiest when they are permitted to be free from nature. In short, individuality has to be given due consideration and respect. If the traditional relationship with nature had been preserved, man would not be facing problems with the environment and nature that presently appear insurmountable. It is well-known that Tagore considered modern-day schools like a cage; or even a prison-house, and the confinement of children there as organized torture! To Tagore, the obligation of the parental generation was to give them happiness. According to him freedom and joy were the sine qua non of education, and these were also the motto of his school.

Swami Vivekananda taught us that “education is a manifestation of perfection already in man’. And we all know who the ‘Perfect One’ is! There is no bar on human beings making comprehensive efforts to reach that stage! In the Asramer siksa, Tagore mentions: “As God himself finds his own freedom in his own creation and then his nature is fulfilled, human beings, have to create their own world and then they can have their freedom.” Thus, curiosity, imagination, ideas and creativity are indeed blessings of the divine that every human being born on earth receives in abundance without any discrimination of any sort. These must be scrupulously and dexterously encouraged to flourish, without impediments.

 The modern education system does just the opposite! The unobstructed expression could be the first essentiality towards the flowering of the creative spirit. It could revolutionise intellectual effort and constructive activities, as well as arts, aesthetics and literature. If one recalls the ancient Gurukula system, it would clearly emerge that the man-nature relationship was given its due. An over-alert and happily living community is invariably acknowledged for its original products of intellect and also its outputs in creative sectors of human activity.

 At this point, one could recall what Einstein had said: “A hundred times every day I remind myself that my inner and outer life is based on the labours of other men, living and dead and that I must exert myself in order to give in the same measure as I have received and am still receiving.” And we all are aware that our very existence on this planet hinges on the sensitive cord that eternally binds humankind to nature, and our own tradition and practice of knowledge quest, both in the outer world and inner self. Education systems the world over must remember, both at the policy formulation stage as also during the implementation, that “education divorced from nature has brought untold harm to young children.” It has, consequently, brought/harm to humanity.

 Acceptance of the education philosophy of Tagore has received acceptance from modern-day education policymakers. One could particularly point out Tagore’s passionate support for the mother tongue as a medium of instruction in education. He was vehemently opposed to the then-prevalent system of education that made learning English compulsory from day one of schooling and the medium of instruction from high school to university education. It separated a vast majority of people from the privileged elite that could afford to get an education in English and English mediums in India or from abroad. Learning English has been the prime factor of high dropout rate in schools and is uniformly responsible for creating considerable demoralization amongst those considered weak in English, even at the present stage. Learning English or through the English medium made the school environment completely alien to a great majority of children. If quality has become a major concern in the Indian education system today, one must seriously examine the contribution of the increasing fascination amongst parents who could afford admissions of their wards in high-fee charging private schools; euphemistically called public schools. In Tagore’s approach harmony between the home environment and the learning environment gets high priority. He pleads for freedom, but not at the cost of discipline and formation of character and inculcation of values. That unfortunately is becoming more and more elusive in the ever-expanding phenomenon of urbanization.

 There is so much that those entrusted with the implementation of the new education policy could learn from the philosophy of Gurudev. One would be cautious in mentioning that the Vishwa Bharati stands as evidence of his ideas, imagination and vision transformed into a living reality. Let us hope it regains its credibility once again, and that would please everyone who respects Gurudev.

(Professor Rajput works in education, social cohesion and religious amity.)

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बौद्धिक उत्कृष्टता का अर्थ

भारत में दर्शन और ज्ञान परंपरा, जो वैश्विक भाईचारे की अवधारणा पर विकसित हुई है, ऐसी सभी समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करने में सक्षम है। प्रारंभ शैक्षिक संस्थाओं से ही करना होगा।

– जगमोहन सिंह राजपूत

आज जब विश्व में हर तरफ ज्ञान-समाज की संकल्पना अपना व्यावहारिक स्वरूप सभी के समक्ष स्वत: ही प्रस्तुत कर रही है, और जब ज्ञान ही सभी देशों की अर्थव्यवस्था का आधार बन रहा है, तब स्वाभाविक है कि हर देश में शिक्षा के लेकर नई चुनौतियां भी उभरें। आज से तीन-चार दशक पहले तक भारत में बच्चों का स्कूल में नामांकन कराना बड़ी चुनौती थी। लड़कियों को स्कूल भेजना समाज के बड़े वर्ग को स्वीकार नहीं था। आज पालकों की सबसे बड़ी अभिलाषा है कि उनके बच्चों- लड़कियों और लड़कों दोनों को हर स्तर पर गुणवत्तापूर्ण और कौशल युक्त शिक्षा मिले।
इस दृष्टिकोण परिवर्तन को एक बड़ी राष्ट्रीय उपलब्धि के रूप में देखा जाना चाहिए। वैसे इस दलाव से एक बड़ी हानि भी हुई है। कुल पंद्रह लाख से अधिक स्कूलों में सरकारी स्कूलों की संख्या 10.8 लाख के आसपास है। इनमें से अधिकांश की साख लगातार घटी है। हालांकि कुछ सुनहरे अपवाद भी हैं, जैसे नवोदय विद्यालय, केंद्रीय विद्यालय। कुछ आशाजनक अपवाद उच्च शिक्षा संस्थानों में भी हैं, लेकिन एक सक्रिय और सतर्क ज्ञान समाज की स्थापना के लिए हर स्तर पर हर शिक्षा संस्थान की साख और स्वीकार्यता स्तरीय और पारदर्शी होनी ही चाहिए।

श्रीअरविंद के अनुसार शिक्षा में सबसे महत्त्वपूर्ण अवयव है ‘मनुष्य की समझ’! ऐसा न होने पर शिक्षा केवल सूचनाएं प्रदान करने तक सीमित हो जाती है। अगर भूले-भटके ज्ञान की प्राप्ति किसी प्रकार हो भी गई, तो उसके उपयोग की संभावना और दुरुपयोग की आशंका से परिचय आधा-अधूरा ही रह जाता है। केवल सूचनाएं या जानकारियां युवाओं को नवाचार और नए ज्ञान की खोज के लिए प्रेरित या तैयार नहीं कर सकती हैं। ऐसी शिक्षा बालक या युवा के व्यक्तित्व में बदलाव नहीं कर पाती है। परिणाम स्वरूप समाज को ही नहीं, परिवार को भी अनेक प्रकार की सामूहिक और व्यक्तिगत विकृतियों से जूझना पड़ता है।

एपीजे अब्दुल कलाम की ‘अग्नि की उड़ान’ की संकल्पना का व्यक्ति तभी शिक्षा संस्थाओं से तैयार होकर निकलेगा, जब वह जानकारी ही नहीं, ज्ञान, बुद्धि, विवेक, कौशल से संपन्न होकर तथा सेवा और तपस्या का अनुभव ले चुका और इस सबका सदुपयोग करने के लिए प्रतिबद्धता को अंतर्निहित कर चुका हो। ऐसा युवा कलाम ही नहीं, स्वामी विवेकानंद की संकल्पना का भी युवा होगा। इस स्थिति तक पहुंचाने का उत्तरदायित्व मुख्य रूप से शिक्षा व्यवस्था का ही होगा, जो पहले घर पर सीखने-सिखाने की परिवार व्यवस्था से प्रारंभ होगा, लेकिन स्कूल में आने के पश्चात मुख्य रूप से शिक्षक का ही होगा।
प्रेरणा, सहयोग और उत्साहवर्धन तो हर व्यक्ति को हर स्तर पर, हर समय चाहिए ही । संस्थाओं की साख व्यक्तियों के संस्था के लक्ष्यों के प्रति समर्पण से सीधे जुड़ती है। साख की स्वीकार्यता तो समाज से ही मिलती है और समाज को हर संस्था से उत्कृष्टता की अपेक्षा का पूरा हक है। बौद्धिक अधिरचना के भविष्योन्मुखी होने के लिए आवश्यक है कि उच्च शिक्षा तथा शोध संस्थाओं में अध्ययन, अध्यापन तथा शोध और नवाचार में वही व्यक्ति प्रविष्ट हों, जिनके मन-मानस में उत्कृष्टता प्राप्ति के लिए ज्ञान-सृजन की ज्वाला धधक रही हो! ऐसी संस्थाएं भारत में भी कार्य कर रही हैं।

स्वामी विवेकानंद और जमशेद जी टाटा की समुद्र यात्रा के दौरान हुई चर्चा से जन्मे इंडियन इंस्टीट्यूट आफ साइंस एंड रिसर्च, बंगलोर ऊपरोक्त अपेक्षाओं का साकार स्वरूप आज भी प्रदर्शित कर रहा है। कई अन्य संस्थानों का नाम भी इस श्रेणी में लिया जा सकता है। दूसरी तरफ जिन उच्च शिक्षण संस्थाओं की साख में भी कमी आई है, उनका नाम लेना अशालीन माना जा सकता है। ज्ञान-समाज की संरचना में संस्थाओं का मनोबल लगातार उच्च स्तर पर बनाए रखने की आवश्यकता अब सभी शैक्षिक संस्थानों पर लागू करनी पड़ेगी। इसका कोई विकल्प नहीं है।
वर्तमान स्थिति में यह एक अत्यंत कठिन संभावना मानी जाएगी। देश को इस उत्तरदायित्व को निभाना ही पड़ेगा, उसे प्रतिभा को विकसित करना स्कूल जाने की आयु के पहले से ही प्रारंभ करना होगा। विशिष्ट प्रतिभा और व्यक्तिगत रुचि की पहचान को सतत प्रक्रिया बनाते हुए उच्च शिक्षण संस्थानों में उत्कृष्टतम संसाधनों को उपलब्ध करा कर ज्ञान, बुद्धि और विवेक के प्रस्फुटन का वातावरण युवा प्रतिभाओं को प्रदान करना अपेक्षित है।
हालांकि कारपोरेट संस्कृति का आकर्षण अत्यंत प्रबल हो रहा है, शिक्षा संस्थानों की मूल संरचना की सार्थकता तथा उनकी साख और बौद्धिक उत्पादकता में वृद्धि की समझ रखने वाले विद्वान जानते हैं कि ऐसा तभी संभव होता है, जब वहां के अध्यापक और शोधकर्ता संस्था से संवेदनात्मक स्तर पर जुड़े हों। इसे प्राथमिक शालाओं से लेकर विश्वविद्यालयों तक परखा जा चुका है, इसे पुन: स्थापित करने के प्रयास आवश्यक हैं।

स्वामी विवेकानंद और जमशेद जी टाटा की समुद्र यात्रा के दौरान हुई चर्चा से जन्मे इंडियन इंस्टीट्यूट आफ साइंस एंड रिसर्च, बंगलोर ऊपरोक्त अपेक्षाओं का साकार स्वरूप आज भी प्रदर्शित कर रहा है। कई अन्य संस्थानों का नाम भी इस श्रेणी में लिया जा सकता है। दूसरी तरफ जिन उच्च शिक्षण संस्थाओं की साख में भी कमी आई है, उनका नाम लेना अशालीन माना जा सकता है। ज्ञान-समाज की संरचना में संस्थाओं का मनोबल लगातार उच्च स्तर पर बनाए रखने की आवश्यकता अब सभी शैक्षिक संस्थानों पर लागू करनी पड़ेगी। इसका कोई विकल्प नहीं है।
वर्तमान स्थिति में यह एक अत्यंत कठिन संभावना मानी जाएगी। देश को इस उत्तरदायित्व को निभाना ही पड़ेगा, उसे प्रतिभा को विकसित करना स्कूल जाने की आयु के पहले से ही प्रारंभ करना होगा। विशिष्ट प्रतिभा और व्यक्तिगत रुचि की पहचान को सतत प्रक्रिया बनाते हुए उच्च शिक्षण संस्थानों में उत्कृष्टतम संसाधनों को उपलब्ध करा कर ज्ञान, बुद्धि और विवेक के प्रस्फुटन का वातावरण युवा प्रतिभाओं को प्रदान करना अपेक्षित है।
हालांकि कारपोरेट संस्कृति का आकर्षण अत्यंत प्रबल हो रहा है, शिक्षा संस्थानों की मूल संरचना की सार्थकता तथा उनकी साख और बौद्धिक उत्पादकता में वृद्धि की समझ रखने वाले विद्वान जानते हैं कि ऐसा तभी संभव होता है, जब वहां के अध्यापक और शोधकर्ता संस्था से संवेदनात्मक स्तर पर जुड़े हों। इसे प्राथमिक शालाओं से लेकर विश्वविद्यालयों तक परखा जा चुका है, इसे पुन: स्थापित करने के प्रयास आवश्यक हैं।

प्राचीन भारतीय संस्कृति की पितृऋण, ऋषिऋण और देव ऋण की अद्भुत संकल्पना की समझ को अगर शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों में न केवल पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए, उसका व्यावहारिक स्वरूप भी वहां प्रशिक्षण पानेवाले को प्रतिदिन दृष्टिगोचर हो, तभी शैक्षिक संस्थाओं में उपयुक्त वातावरण परिवर्तन संभव है, और उसके परिणाम स्वरूप वहां से प्रशिक्षित होकर कार्यक्षेत्र में आने वाले युवाओं का बड़े पैमाने पर सकारात्मक दृष्टिकोण परिवर्तन संभव है। इसे एक अन्य प्रकार से भी कहा जा सकता है। मनुष्य इस समय इस पृथ्वी ग्रह पर अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष कर रहा है।
उसने अपने नैसर्गिक उतरदायित्व को पूरी तरह किनारे रख कर केवल अपने लालच और संग्रहण के लिए प्रकृति प्रदत्त संसाधनों का अनावश्यक दोहन और शोषण किया। अ दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं। हर बड़े शहर में जहरीली हवा में सांस लेने को नवजात शिशु से लेकर वयोवृद्ध तक मजबूर हैं। पानी का प्रदूषण, नदियों का समाप्त होना, जंगलों का काटा जाना, जलवायु परिवर्तन, रासायनिक खादों का मिट्टी की उत्पादकता को क्षीण करना, कितना कुछ इस श्रेणी में गिनाया जा सकता है।

भारत में दर्शन और ज्ञान परंपरा, जो वैश्विक भाईचारे की अवधारणा पर विकसित हुई है, ऐसी सभी समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करने में सक्षम है। प्रारंभ शैक्षिक संस्थाओं से ही करना होगा। मानवीय अस्तित्व को बचाए रखने के लिए आवश्यक है कि हर व्यक्ति का मनुष्यत्व के सार को मनसा वाचा कर्मणा अंतर्निहित करना। और इसका रास्ता केवल वही शिक्षक या
अध्यापक दिखा सकता है, जो आचार्यत्व की गरिमा का सार तत्त्व पूरी तरह से आचार-विचार- व्यवहार में स्वीकार कर चुका हो, जिसे आचार्य होने और लोगों का जीवन संवारने के लिए मिले अवसर का प्रतिबद्धता से सदुपयोग करने का जुनून हो ।
हर प्रकार की वैश्विक समस्याओं के त्वरित समाधान के लिए लोग प्राय: सरकारों की ओर देखते हैं। मगर यह भी सही है कि जो समस्याएं मनुष्य के अस्तित्व को पृथ्वी पर बनाए रखने में संकट उत्पन्न कर रहीं हैं, उनके समाधान के लिए त्वरित योजनाओं के साथ दीर्घकालीन रणनीति का सृजन भी आवश्यक है। इसके लिए सबसे पहले शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों तथा स्कूलों में जाना होगा, वहां सभी का मनोबल बढ़ाना होगा, उसके लिए उचित वातावरण और कार्य-संस्कृति निर्मित करनी होगी। राष्ट्र निर्माण और समाज के प्रति समर्पण की भावना जागृत हो जाने के बाद भारत के विकास, वृद्धि और प्रगति में अभूतपूर्ण बढ़ोतरी अवश्यंभावी है।

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अनुचित भाषा का बढ़ता प्रयोग

आज देश में अधिकांश दलों और राजनेताओं का लक्ष्य भी किसी भी तरह सत्ता में पहुंचने तक सीमित हो गया है। उन्हें यह समझना होगा कि सत्ता में पहुंच कर जनसेवा कर पाना ही एकमात्र विकल्प नहीं है।

-जगमोहन सिंह राजपूत

इस समय भारत की ओर सारा विश्व आशा से देख रहा है। यह केवल इसकी अर्थव्यवस्था तक ही सीमित नहीं है। वैश्विक स्तर पर केवल भारत से ही यह अपेक्षा की जा रही है कि वह यूक्रेन-रूस युद्ध को रुकवा सकता है। हालांकि इसके साथ-साथ एक चिंताजनक स्थिति भी बनी है। वह यह कि देश की राजनीति और राजनीतिक दलों के मध्य संवाद, सहयोग और संवेदना लगभग पूरी तरह अनुपस्थित हो चुकी हैं। जो सत्ता में रह चुके हैं, वे वहां पहुंचने की बहुत जल्दी में हैं, लेकिन इसके लिए व्यवस्थित प्रयास करने के स्थान पर वे निराश और हताश को ही व्यक्त करते रहते हैं।

अपरिग्रह को लोकसेवक का आभूषण माननेवाले महात्मा गांधी के देश में अपने को उनकी विरासत का उत्तराधिकारी घोषित करने वाले नेता जब सत्ता में आए तो इस तथ्य को भूल गए। वे गांधी के मूल्यों से अलग हट गए। जनसेवा के स्थान पर अपनी और अपने परिवार की सेवा तक सीमित हो गए। उनमें से अधिकांश संग्रहण की चकाचौंध में इस तरह घिरे कि उनकी पीढ़ियां भी उसी राह पर आगे बढ़ीं। अनेक ऐसे परिवार राजनीति में उभरे, जिन्होंने सत्ता में पहुंचकर अकूत धन संग्रह किया, उनकी अगली पीढ़ी ने वह शान-ओ-शौकत और रुतबा देखा और सत्ता में पहुंचने को अपना जन्मसिद्ध अधिकार मान लिया।

व्यक्तिगत भौतिक संग्रहण के साये में लोकसेवा नहीं हो सकती और उस अवस्था में अहंकार का बढ़ना कोई रोक नहीं पाता। ऐसी स्थिति में जीवन में शालीनता और जनता के प्रति उत्तरदायित्व बोध स्वार्थ के बोझ तले दब जाता है। भारत के अधिकांश राजनीतिक दल इसमें उलझ चुके हैं। कुछ नेताओं और नेता-संतति की भाषागत अशालीनता उनकी सत्ता पाने की व्याकुलता और व्यग्रता को ही प्रदर्शित करती है। राहुल गांधी का उदाहरण हमारे सामने है। गत दिनों अदालत ने उन्हें एक समुदाय के खिलाफ अनुचित भाषा के प्रयोग का दोषी माना। इसके लिए उन्हें सजा सुनाई। परिणामस्वरूप संसद की सदस्यता से हाथ धोना पड़ा। इसके खिलाफ कांग्रेस सहित तमाम विपक्षी दलों की ओर से जो सतही विरोध के स्वर उठाए जा रहे हैं, उसका कारण समझ पाना कठिन नहीं है।

आज देश में अधिकांश दलों और राजनेताओं का लक्ष्य भी किसी भी तरह सत्ता में पहुंचने तक सीमित हो गया है। उन्हें यह समझना होगा कि सत्ता में पहुंच कर जनसेवा कर पाना ही एकमात्र विकल्प नहीं है। पिछले करीब नौ वर्षों से सत्ता से जनता द्वारा पदच्युत की गई कांग्रेस पार्टी सर्व-विदित कारणों से अपने को जनता से जोड़ नहीं पाई है। वह एक सक्षम विकल्प बनने की दिशा में भी आगे नहीं बढ़ सकी है। देश में एक ऐसा वर्ग भी है, जो कांग्रेस को एक सशक्त विकल्प के रूप में स्थापित होते देखना चाहेगा।

लोकतंत्र में नागरिकों को अपने विचार मत का सत्तापक्ष तो चाहिए ही, वह एक सजग, सक्रिय और सतर्क विपक्ष की उपस्थिति भी अवश्य देखना चाहेगा। जनता यह भी चाहेगी कि इस देश में पक्ष और विपक्ष, दोनों ही गांधी जी को अपनाएं, उनके द्वारा स्थापित मूल्यों को वर्तमान संदर्भ में समझें, स्वार्थ केंद्रित राजनीति यहां नहीं चलेगी। जो सत्ता में लौटने को व्यग्र हैं, उनके लिए भी भूल-सुधार और मार्ग परिवर्तन के सूत्र गांधी जी के विचारों के अध्ययन और समझ से ही मिल सकेंगे। अभद्र भाषा किसी भी संदर्भ में स्वीकार नहीं हो सकती। यह आश्चर्यजनक है कि गांधी जी के देश में भी उन्हीं का नाम लेकर सत्ता में पहुंच कर लोकसेवकों ने न केवल गांधी को भुला दिया, वरन उनके सिद्धांतों को भी तिलांजलि दे दी। दिल्ली और पंजाब में तो उनका चित्र सरकारी कार्यालयों से भी हटा दिया गया। सत्ता में छल-बल से तो पहुंचा जा सकता है, लेकिन जनमानस को समझ कर लोगों के हृदय में उतर जाना सबके बस की बात नहीं।

तीन जून, 1926 को गांधी जी ने यंग इंडिया में सर्वोच्च कोटि की स्वतंत्रता के साथ सर्वोच्च कोटि के अनुशासन और विनय की आवश्यकता का महत्व समझाते हुए कहा था कि अनुशासन और विनय से मिलनेवाली स्वतंत्रता ही हर व्यक्ति की वास्तविक स्वतंत्रता होगी, जिसे कोई छीन नहीं सकेगा। संयमहीन स्वच्छंदता संस्कारहीनता की द्योतक है। इस समय भारत का लोकतंत्र उस स्थिति में पहुंच गया है जिसमें ज्यादातर राजनेताओं ने भाषा और व्यवहार की शालीनता को पूरी तरह तिलांजलि दे दी है। अपने को समय-समय पर गांधी जी का उत्तराधिकारी घोषित करनेवाले जनप्रतिनिधि शायद उनके इन शब्दों से पूरी तरह अनभिज्ञ दिखाई पड़ते हैं कि ‘लोकसेवक नम्रता की पराकाष्ठा दिखाएं। दूसरे वैतनिक सेवकों अथवा अन्य व्यवसायों के अलावा सेवा का काम करने वालों की तुलना में अपने को श्रेष्ठ न समझें, उनसे श्रेष्ठ बन कर रहने का प्रयत्न न करें।’ दुख की बात है कि राहुल गांधी ने जनसंवाद में भाषा की शालीनता के महत्व को नहीं समझा। इस प्रकरण में भारत की राजनीति की एक और बड़ी कमी सामने आई। न्यायालय की गरिमा पर अनावश्यक और लज्जाहीन प्रहार किया गया।

न्यायालय के किसी भी निर्णय को सरकार द्वारा प्रभावित बताना सारी न्याय व्यवस्था का अपमान है। ऐसा करने का अधिकार किसी को नहीं होना चाहिए। राहुल गांधी प्रकरण में यह प्रवृत्ति खुल कर चर्चा में आई है। न्याय व्यवस्था में कितनी ही कमियां क्यों न हों, उसकी नीयत पर संदेह प्रकट करना आत्मघाती ही होगा। इस दिशा में भी आवश्यक कदम उठाए जाने चाहिए। इसके साथ-साथ इन दिनों संसद में जिस तरह का शोर-शराबा प्रतिदिन सुनाई देता है, स्थगित होने के पहले वहां जो आरोप-प्रत्यारोप उछले जाते हैं, वे किसी भी सतर्क और सक्रिय नागरिक को विचलित कर देते हैं। इस स्थिति से भी देश को उबरना होगा।

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भारत की ‘विकास यात्रा’ में पश्चिम का असर, निस्वार्थी, सेवाभावी जनप्रतिनिधि और लोकसेवक गायब

गांधी के देश में ही कितने लोकसेवक और चयनित प्रतिनिधि अपरिग्रह के लिए जाने-पहचाने जाते हैं? सामान्य जन से पूछिए तो वह यही कहेगा कि सत्ता में पहुंचे जन प्रतिनिधि तो शायद- अपवाद छोड़ कर- अपरिग्रह की अवधारणा से ही अपरिचित लगते हैं।

-जगमोहन सिंह राजपूत

थामस फ्रीडमैन ने लगभग दो दशक पहले अपनी पुस्तक ‘द वर्ल्ड इज फ्लैट’ में भारत में हो रहे बदलाव की विवेचना करते हुए लिखा कि जब वे बंगलुरु के एक कार्यालय में पहुंचे और उन्होंने अपने चारों ओर निगाह दौड़ाई, तो उन्हें लगा कि वे अमेरिका पहुंच गए हैं। उन्हें बाहर का परिदृश्य ठीक वैसा ही लगा जैसा अमेरिका के किसी बड़े शहर का उन दिनों होता था।

बहुराष्ट्रीय कंपनियों के चमकते-दमकते कार्यालय उन्हें हर ओर दिखे। उस कार्यालय में काम कर रहे युवा अपना उच्चारण अमेरिकी लहजे में ढालने का प्रयास कर रहे थे। इस पर फ्रीडमैन ने एक रुचिकर विनोद किया कि कोलंबस तो अनिश्चित यात्रा पर चला और अमेरिका पहुंच गया और उसे ही भारत मान लिया, मगर मेरा तो सब कुछ पूर्व-निर्धारित था, फिर मैं भारत के बजाय अमेरिका कैसे पहुंच गया?

अंग्रेजी साम्राज्य के नीति निर्धारकों ने भारत पर आधिपत्य बनाए रखने के लिए रणनीति बनाई कि ‘भारतीयों को भारत से अलग कर दिया जाए। उन्हें अपनी भाषा, संस्कृति, इतिहास से दूर कर उनके आत्मविश्वास को तोड़ दिया जाए।’ वे इसमें सफल रहे। भारत से जाते समय वे देश की शासन-व्यवस्था एक ऐसे पढ़े-लिखे वर्ग के हाथों में सौंप गए, जो हर स्तर पर अपने को अपने ही लोगों से अलग और श्रेष्ठ मानता था और पूरी तरह विश्वास करता था कि हर प्रकार की उत्कृष्टता का केंद्र यूरोप, इंग्लैंड ही हैं।

गांधीजी इस तथ्य से परिचित थे। उन्होंने देश में राष्ट्र के प्रति समर्पित नेतृत्व का जो वर्ग तैयार किया था, उसमें से अधिकांश उनके दर्शन से अभिभूत और उसे जीवन में उतार चुके थे। सात दशक पार कर चुकी पीढ़ी ने ऐसे लोगों को देखा है। उनमें से कुछ के लिए यहां तक कहा जाता था कि उनकी जीवन-शैली में गांधी के सिद्धांतों का स्वयं गांधीजी से अधिक अनुशासन से पालन होता था। ऐसे लोग गांधीजी के जाने के बाद अपने को अलग-थलग महसूस करने लगे, और अगले दो-तीन दशक तक उन सबने भारत के विकास की यात्रा में पश्चिम का प्रभाव बुझे मन से देखा।

इससे यह स्पष्ट है कि राष्ट्र के प्रति समर्पित नेतृत्व भी सत्ता में प्रवेश पाने की संभावना से कितना उतावला हो चला था और यह जानते हुए भी कि गांधीजी को कितना कष्ट होगा, वे भारत विभाजन तक को तैयार हो गए थे। उन्होंने गांधी को दरकिनार कर अपना रास्ता चुन लिया था। बीसवीं सदी में भारत तथा भारत के लोगों के हृदय, मस्तिष्क और कौशल को जिस गहराई से गांधी ने समझा था, वैसा शायद ही कोई दूसरा था। गांधी के विचारों को जो स्वीकार्यता भारत और विश्व पटल पर उनके जीवन काल में ही मिली थी, उसमें सेंध लगाने का काम उनके अंतिम वर्षों में भारत में ही प्रारंभ हो गया था।

सत्ता के लिए सिद्धांतों की बलि चढ़ाने में अब किसी को कोई हिचक नहीं होती। लोकसेवक और स्वार्थसेवक में अंतर कर पाना कठिन हो गया है। अपरिग्रह को अपना कर क्या कोई लोकसेवक आज किसी भी स्तर पर चयनित प्रतिनिधि बन सकता है? जो बनते हैं, उनमें से अधिकांश अपने मतदाताओं के लिए ही अलभ्य हो जाते हैं। इसके बरक्स गांधीजी ने लिखा था कि ‘जिसे अपने त्याग या लोकसेवक या आजीवन सेवक बनने का भान या अभिमान बराबर बना रहता है, वह लोकसेवक होते हुए भी अपनी पामरता का परिचय देता है।’

उस समय उनके आसपास ऐसे कितने ही लोग उपस्थित थे, जिन्होंने अपना सर्वस्व राष्ट्र सेवा में समर्पित कर दिया था। व्यावहारिक रूप में वे बापू की इस अपेक्षा पर खरे उतरते थे कि ‘लोकसेवक नम्रता की पराकाष्ठा दिखाए- शून्य बन कर रहे’। उसकी मिठास और नम्रता जनता और साथियों का मन जीत ले। उन्होंने विश्वासपूर्वक कहा कि ‘निस्वार्थी, नम्र, प्रामाणिक और चरित्रवान लोकसेवक जनता का प्रीतिपात्र न बना हो, ऐसा कोई अनुभव नहीं है।’

उनकी दूरदृष्टि में यह स्पष्ट था कि विकास और प्रगति के मार्ग पर देश तभी आगे बढ़ेगा, जब लोकसेवक मुख्य रूप से चयनित जनप्रतिनिधि हर स्तर पर अपनी उद्योग-परायणता तथा समय पालन का गुण श्रद्धा से अपनाएंगे और सामान्य जन के लिए अनुकरणीय उदाहरण बनेंगे। जापान आज द्वितीय विश्व-युद्ध की अपनी ध्वस्त-संसाधन की स्थित से अत्यंत सम्माननीय और समृद्ध राष्ट्र की स्थिति में केवल कठिन परिश्रम और समय के प्रति श्रद्धा तथा सदुपयोग के कारण ही पहुंचा है।

भारत ने गांधी की सीख को भुला दिया, या यों कहें कि अपनी नई पीढ़ियों को सिखा नहीं सका। आज जन सामान्य के मूल्यांकन में लोकसेवक- अपवाद छोड़ कर- अहंकार, अभिमान और असीमित संग्रहण में लिप्त व्यक्ति ही हैं। बापू की उस अपेक्षा से आज कितने चयनित प्रतिनिधि परिचित होंगे कि ‘लोक सेवक अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने की इच्छा से इस काम में प्रवृत्त नहीं हुआ है’! गांधी के देश में ही कितने लोकसेवक और चयनित प्रतिनिधि अपरिग्रह के लिए जाने-पहचाने जाते हैं?

सामान्य जन से पूछिए तो वह यही कहेगा कि सत्ता में पहुंचे जन प्रतिनिधि तो शायद- अपवाद छोड़कर- अपरिग्रह की अवधारणा से ही अपरिचित लगते हैं। आज ऐसे कितने लोकसेवक होंगे जो बापू की इस कसौटी पर खरे उतर सकें: ‘अनुभव यह है कि जिस पर विश्वास बैठ चुका है, वह लोकसेवक अपने कार्य क्षेत्र में एकाधिकारिता का उपभोग करता और जनता उसकी हर बात को मानती है। वह किसी का अप्रीति-पात्र या ईर्ष्यापात्र नहीं बनता और न किसी को त्रासदायक मालूम होता है।’

यह कैसी विडंबना है कि जनसेवा के नाम पर कितने लोग इस देश में पनपे, सामान्य जन को त्रास देकर अकूत संपत्ति के मालिक बने, और उन्हें राजनीतिक संरक्षण भी मिला। ऐसे लोगों से यह अपेक्षा करना एक अलभ्य कामना होगी कि ‘जनता की सेवा के लिए अपने धन, प्राण, परिवार, सुख-सुविधा, स्वतंत्रता आदि का त्याग करने की पहली जिम्मेदारी उसे अपने सिर पर लेनी चाहिए।’ पर, आशा की किरण यही है कि राजनीति और सत्ता से अलग रह कर कितने ही लोग लोकसेवा में संलग्न हैं। वे ही आशा के स्रोत हैं।

थामस फ्रीडमैन ने बिना सीधे कहे, नए भारत की शिक्षित युवा पीढ़ी की ग्रीन कार्ड जैसी अपेक्षाओं की सिद्धि के लिए उत्कंठा की ओर ही ध्यान नहीं दिलाया, उसने विकास की पद्धति की ओर भी इंगित किया था। तकली की बात तो देश ने स्वतंत्रता के बाद ही भुला दी, मगर आज जब कौशल अर्जन की महत्ता की ओर ध्यान देना ही पड़ रहा है, तकली के पीछे की दूरदृष्टि को समझने का प्रयास नई दिशा दिखा सकता है।

उसी से यह समझ भी बढ़ेगी कि भारत में सभी को काम देने और करने की स्थिति बनाने के लिए आवश्यक है कि परंपरागत कौशलों से तो परिचय पाया ही जाए, उनमें समयानुकूल परिवर्तन किए जाएं। व्यक्तिगत उद्यमशीलता को बढ़ाया जाए और हर व्यक्ति को भारत को समझने की आवश्यकता से परिचित कराया जाए। देश को विज्ञान, तकनीकी, उद्योग, व्यापार तो चाहिए ही, मगर इन सबको आवश्यक रूप से चाहिए गांधी, जो नैतिक आधार, संवेदना और सेवा को हर समय उजागर करता रहे।

 

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Moral compass is critical for democracy

 

The 75+ generation of Indians has seen and observed the decline of moral and humanistic values in the political sphere, and the consequent deterioration of the credibility of leaders, elected representatives, and those in office. It adversely impacts the very vitals of democracy, its institutions and, above all, the people and their concerns.

– J. S. Rajput

The manner the Indian Parliament conducted itself in the second half of the Budget session in March 2023 inflicts considerable disquiet amongst all those who revere it as a pious institution that could transform the lives of every Indian and give dignity and better life to those who deserve support and handholding because of exclusion and sufferings inflicted for generations due to historical, social and cultural constraints.

Could such an assembly of responsible people afford to waste their time for weeks together? They all are—officially—honourable individuals who are guardians of the Constitution; they are policymakers and lawmakers of the nation. The global image of India is changing fast; it is being viewed with considerable interest; there are high hopes in the international community. The last decade has convinced the powers that be that India is emerging as a self-confident nation; it is no more cowed down by its belligerent neighbours. India is no more willing to suffer ‘thousand cuts’ and terrorist attacks. The new-found sense of national pride could be seen in practically every home and hearth in India, in its farms and fields, across the high-end research labs bringing out innovations in areas, extending from artificial intelligence to space research.

India has enhanced its pace of change with full confidence and self-assurance. It has to make course corrections as well and must recall the Mahatma. ‘The Lonely Pilgrim (Gandhiji’s Noakhali pilgrimage)’, a compilation by Manubahan, contains the essence of how Gandhi realised that the national service has nowadays come to mean striving for a big name, according to many now, through which one can get a notice in the papers or is photographed—which is better—or secure ministership as a reward for going to jail.

So everyone wants to grab power in order to rise to a ministership in the end. But how can even good ministers do any notable work without the people’s support? The country does require ministers, but a minister can adorn his post only if he deserves it, Gandhi said. He observed, in this very context, the presence of ‘selfish stinginess’ and reiterated that “we must, therefore, train ourselves to keep national interest always before us.” And this was not the first time he was referred to ministers.

On September 18, 1938, when provincial governments had spent just ten months in ‘power’, things were not much different! The Mahatma received a letter from a citizen, indicating that the main purpose of the “Congress ministry appears to us to be to worship your idol in public and break it in secret; to worship the symbols of Imperialism in secret and denounce them in public, to play the malefactor towards their opponents when they cannot conquer by truthful and legitimate methods,..”

Gandhi had condensed this after “toning down the bitterest part.” The letter writer had also included a sentence which after 85 years appears prophetic: “The government of a people cannot be run by the common argument of promised boons and by corrupting the electorate with hope.”

The lesson to be drawn is clear: the mere scent of power coming to ministers made them leave no stone unturned to shake the moral foundation of good government. In this particular instance, the letter-writer found it strange why Gandhi’s “soul should not revolt against such a predatory Ministry for creation of which the moral responsibility is entirely yours”.

After over seven decades of Independence, India has more ex-ministers than serving ministers. The taste of having savoured power—exceptions apart—has been highly intoxicating. We have ‘Lok-Sewaks’ who swear by the name of Mahatma Gandhi but have amassed wealth by means that could be beyond the comprehension of the finest of economists. People have seen the growth and display of affluence that follows politicians becoming elected representatives, ministers and chief ministers. In fact, most panchas and sarpanchas of village panchayats have proved to be good learners from politicians.

The issue before the nation is: why are the elected representatives losing credibility among those who elect them and put them in the saddle of power?

The manner democracy is being conducted was most crudely exposed in the recent election of the mayor of Delhi, which presented a shocking spectacle for everyone who feels a sense of pride in Indian democracy. The entire country witnessed it, as did the world. I found it shameful. Sadly enough, one could cite numerous such instances that have led to the disaffection between the representative and those represented. 

On May 12, 1920, Gandhi said: “If I seem to take part in politics, it is only because politics today encircle us like the coils of a snake from which one cannot get out no matter how one tries. I wish to wrestle with the snake…” He did, and created a model of giving people a voice, a non-violent approach that helped not only India but so many other nations to throw away the yoke of imperialism, the caste system and apartheid.

In one word, he made people trust the moral force. On September 7, 1920, it was so articulated by Gurudev Rabindranath Tagore: “We need all the moral force which Mahatma Gandhi represents, and which he alone in the world can represent.” It was this moral force that every Indian was supposed to comprehend, internalise and put to practice.

Obviously, the representatives of people at every stage were—and are—supposed to be the prime torchbearers of the legacy of Gandhi. Each one of them needs self-introspection; they must analyze the extent to which their conduct is contributing to the national cause, strengthening democracy, and helping the amelioration of the miseries from the life of the ‘last man in the line.’

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पाकिस्तान की बदहाली के सबक

JS Rajput to represent UNESCO Executive Board

नैतिकता एवं मानवीय संवेदनशीलता का ह्रास व्यक्ति को ही नहीं, राष्ट्र को भी अंदर से खोखला जगमोहन सिंह राजपूत बना देता है

– जगमोहन सिंह राजपूत

भारत ने तुर्किये को भूकंप जनित घोर संकट के समय जिस तत्परता से सहायता पहुंचाई, उसकी वैश्विक स्तर पर प्रशंसा हुई, लेकिन पाकिस्तान ने इसकी कोई प्रशंसा नहीं की। जहां भारत ने एक बार फिर से मानवीय संवेदना का सशक्त उदाहरण प्रस्तुत किया, वहीं हमारे पड़ोसी ने फिर से वही ईर्ष्या और द्वेष को प्रकट किया। पाकिस्तान अपने को इस्लामी देश कहता है, लेकिन दूसरे इस्लामी देश को जाने वाली आपातकालीन सहायता में रोड़े अटकाने में नहीं हिचकता । दिवालिया घोषित होने की कगार पर खड़ा यह देश इन दिनों पूरे विश्व में सहायता मांग रहा है, लेकिन भारत को हजारों जख्म देने की नीति में कोई बदलाव नहीं कर रहा है। सत्ता से बेदखल होने के बाद हताशा और निराशा में डूबा हुआ विपक्ष आज चाहता है कि पाकिस्तान को परिवार माना जाए। वह कहे या न कहे, लेकिन भारत वहां सहायता पहुंचाए। हालांकि देश का जनमानस इसके लिए तैयार नहीं है। क्या भारत को यह भूल जाना चाहिए कि 26 नवंबर, 2008 को मुंबई में हमला किसने कराया था ? उसके अपराधी पाकिस्तान में आज भी खुलेआम घूम रहे हैं। अपने यहां अल्पसंख्यकों का लगभग सफाया करने वाला पाकिस्तान भारत के मुसलमानों के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी चिंता व्यक्त करता है और हंसी का पात्र बनता रहा है। किसी भी देश को सहायता देने के लिए सर्वोत्तम नीति-निर्देश यक्ष-युधिष्ठिर संवाद में निहित है। यक्ष से युधिष्ठिर कहते हैं कि दान सुपात्र को ही देना चाहिए। जाहिर है भारत के लिए पाकिस्तान अब सुपात्र की श्रेणी में नहीं आता।

किसी भी निष्पक्ष अध्ययन में यह स्वीकार्य होगा कि भारत में लोकतंत्र की जड़ें गहराई तक पैठ बना चुकी हैं। वर्ष 1947 में भारत के मुसलमानों के लिए एक सुरक्षित देश निर्मित करने की अपरिपक्व जिद पर विभाजन की त्रासदी लादकर बनाए गए पाकिस्तान की वर्तमान दयनीय स्थिति से आज सारा विश्व अवगत है। दरअसल पाकिस्तान के इस्लामी शासक कभी भी अन्य मतावलंबियों के प्रति दुर्भावना से मुक्त नहीं हो सके। भारत से प्रतिस्पर्धा करने में वे इतने अंधे हो गए कि अपने देश के लोगों के हितों की पूर्ति उनकी प्राथमिकता में ही नहीं रही। यही नहीं, वहां आधिकारिक तौर पर प्रारंभिक शिक्षा  से ही हिंदुओं के प्रति विशेष रूप से घृणा के पाठ पढ़ाए जा रहे हैं। पाकिस्तान ने अन्य सभी पंथों को इस्लाम से निम्नतर मानने के लिए अपने युवाओं को जिस तन्मयता से तैयार किया गया, उसने उसे दुनिया का सबसे असुरक्षित देश तो बना ही दिया, स्वयं पाकिस्तान में हिंसा का साम्राज्य फैला दिया है। पाकिस्तान में जिस प्रकार अल्पसंख्यकों की संख्या घटी, वह मानवाधिकारों के हनन का अत्यंत दुखद अध्याय है। नैतिकता और मानवीय संवेदनशीलता का ह्रास व्यक्ति को ही नहीं, राष्ट्र को भी अंदर से खोखला बना देता है।

ऐसे वातावरण में भ्रष्ट आचरण करने वालों को खुली छूट मिल जाती है। अविभाजित भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सभी समुदायों तथा क्षेत्रों की सशक्त भागीदारी रही। खान अब्दुल गफ्फार खान जैसे देशभक्तों को कौन भुला सकता है जिन्हें विभाजन ने ‘भेड़ियों को सौंप दिया था। गांधीजी द्वारा प्रतिपादित मूल्यों का प्रभाव मत और पंथ से ऊपर उठकर सभी पर पड़ा था। आजादी के बाद के दो-तीन दशकों तक देश में सत्ता और उसके बाहर ऐसे लोग उपस्थित थे, जिन्होंने देश के लिए सबकुछ न्योछावर कर दिया था। युवाओं पर उनका प्रभाव पड़ता था । जो सत्ता में पहुंचकर वहां की चकाचौंध में इन मूल्यों को त्यागना चाहते थे, उनकी भी आंखों में थोड़ी शर्म बाकी थी। इस स्थिति ने ही भारत में लोकतंत्र को पनपने में सहायता की। वहीं पाकिस्तान इससे वंचित रहा, क्योंकि उसके नेतृत्व को व्यक्तिगत लालच ने प्रारंभ से ही जकड़ लिया था। वहां नैतिकता के स्थान पर मतांधता को बढ़ावा दिया गया, जिसके परिणाम सबके सामने हैं।

लोकतंत्र की जड़ों को निरंतर खाद-पानी देते रहना भी आवश्यक होता है। भारत में पिछले दशक में जो नीतिगत परिवर्तन हुए हैं, उनके आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पक्षों पर सकारात्मक प्रभाव पड़े हैं। जो सत्ता में नहीं हैं, मगर पहले रह चुके हैं, उनकी व्यथा तो समझी जा सकती है, लेकिन उनकी सकारात्मक परिवर्तन को देख पाने की क्षमता का पूर्ण ह्रास लोकतंत्र के आगे बढ़ते रहने के लिए चिंता का विषय है। दिल्ली नगर निगम में पार्षदों के बीच हाथापाई जैसे अनेक उदाहरण न केवल शर्मनाक हैं, बल्कि सामान्य जन द्वारा उनकी भर्त्सना आवश्यक है। वर्तमान केंद्र सरकार द्वारा चलाई गई कल्याणकारी योजनाओं में किसी भी प्रकार के भेदभाव की पूर्णरूपेण अनुपस्थिति भारत के अल्पसंख्यकों के मध्य बड़ा सकारात्मक दृष्टिकोण ला रही है। यह परिवर्तन देश के विकास को नई दिशा देने में बड़ी भूमिका निभाएगा, लेकिन देश के हर सजग और सतर्क नागरिक को ध्यान में रखना होगा कि वे विघटनकारी तत्व जो वोटबैंक, जातीयता और क्षेत्रीयता के आधार पर लोगों को पांच-छह दशक तक बरगलाते रहे, आज पुनः सक्रिय हैं। उन्हें जार्ज सोरोस जैसे समाज को बांटने वालों पर पूरा विश्वास है। सामाजिक सद्भाव और पंथिक समरसता को लेकर जो नया दृष्टिकोण देश में पनप रहा है उस पर लगातार आक्रमण करने वालों से सचेत रहना आवश्यक है। पाकिस्तान के आज बदहाली के गर्त में पहुंचने के मुख्य कारण उसके नेतृत्व में भविष्य दृष्टि की अनुपस्थिति, स्वार्थ और लालच हैं। इसका मुख्य आधार भारत विरोध और हिंदुओं तथा भारतीय संस्कृति के प्रति उनकी घोर घृणा ही है। भारत और हर भारतीय को इस तथ्य को याद रखना आवश्यक है।

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