
भारत की ‘विकास यात्रा’ में पश्चिम का असर, निस्वार्थी, सेवाभावी जनप्रतिनिधि और लोकसेवक गायब
March 25th, 2023 / 0 comments
गांधी के देश में ही कितने लोकसेवक और चयनित प्रतिनिधि अपरिग्रह के लिए जाने-पहचाने जाते हैं? सामान्य जन से पूछिए तो वह यही कहेगा कि सत्ता में पहुंचे जन प्रतिनिधि तो शायद- अपवाद छोड़ कर- अपरिग्रह की अवधारणा से ही अपरिचित लगते हैं।
-जगमोहन सिंह राजपूत
थामस फ्रीडमैन ने लगभग दो दशक पहले अपनी पुस्तक ‘द वर्ल्ड इज फ्लैट’ में भारत में हो रहे बदलाव की विवेचना करते हुए लिखा कि जब वे बंगलुरु के एक कार्यालय में पहुंचे और उन्होंने अपने चारों ओर निगाह दौड़ाई, तो उन्हें लगा कि वे अमेरिका पहुंच गए हैं। उन्हें बाहर का परिदृश्य ठीक वैसा ही लगा जैसा अमेरिका के किसी बड़े शहर का उन दिनों होता था।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों के चमकते-दमकते कार्यालय उन्हें हर ओर दिखे। उस कार्यालय में काम कर रहे युवा अपना उच्चारण अमेरिकी लहजे में ढालने का प्रयास कर रहे थे। इस पर फ्रीडमैन ने एक रुचिकर विनोद किया कि कोलंबस तो अनिश्चित यात्रा पर चला और अमेरिका पहुंच गया और उसे ही भारत मान लिया, मगर मेरा तो सब कुछ पूर्व-निर्धारित था, फिर मैं भारत के बजाय अमेरिका कैसे पहुंच गया?
अंग्रेजी साम्राज्य के नीति निर्धारकों ने भारत पर आधिपत्य बनाए रखने के लिए रणनीति बनाई कि ‘भारतीयों को भारत से अलग कर दिया जाए। उन्हें अपनी भाषा, संस्कृति, इतिहास से दूर कर उनके आत्मविश्वास को तोड़ दिया जाए।’ वे इसमें सफल रहे। भारत से जाते समय वे देश की शासन-व्यवस्था एक ऐसे पढ़े-लिखे वर्ग के हाथों में सौंप गए, जो हर स्तर पर अपने को अपने ही लोगों से अलग और श्रेष्ठ मानता था और पूरी तरह विश्वास करता था कि हर प्रकार की उत्कृष्टता का केंद्र यूरोप, इंग्लैंड ही हैं।
गांधीजी इस तथ्य से परिचित थे। उन्होंने देश में राष्ट्र के प्रति समर्पित नेतृत्व का जो वर्ग तैयार किया था, उसमें से अधिकांश उनके दर्शन से अभिभूत और उसे जीवन में उतार चुके थे। सात दशक पार कर चुकी पीढ़ी ने ऐसे लोगों को देखा है। उनमें से कुछ के लिए यहां तक कहा जाता था कि उनकी जीवन-शैली में गांधी के सिद्धांतों का स्वयं गांधीजी से अधिक अनुशासन से पालन होता था। ऐसे लोग गांधीजी के जाने के बाद अपने को अलग-थलग महसूस करने लगे, और अगले दो-तीन दशक तक उन सबने भारत के विकास की यात्रा में पश्चिम का प्रभाव बुझे मन से देखा।
इससे यह स्पष्ट है कि राष्ट्र के प्रति समर्पित नेतृत्व भी सत्ता में प्रवेश पाने की संभावना से कितना उतावला हो चला था और यह जानते हुए भी कि गांधीजी को कितना कष्ट होगा, वे भारत विभाजन तक को तैयार हो गए थे। उन्होंने गांधी को दरकिनार कर अपना रास्ता चुन लिया था। बीसवीं सदी में भारत तथा भारत के लोगों के हृदय, मस्तिष्क और कौशल को जिस गहराई से गांधी ने समझा था, वैसा शायद ही कोई दूसरा था। गांधी के विचारों को जो स्वीकार्यता भारत और विश्व पटल पर उनके जीवन काल में ही मिली थी, उसमें सेंध लगाने का काम उनके अंतिम वर्षों में भारत में ही प्रारंभ हो गया था।
सत्ता के लिए सिद्धांतों की बलि चढ़ाने में अब किसी को कोई हिचक नहीं होती। लोकसेवक और स्वार्थसेवक में अंतर कर पाना कठिन हो गया है। अपरिग्रह को अपना कर क्या कोई लोकसेवक आज किसी भी स्तर पर चयनित प्रतिनिधि बन सकता है? जो बनते हैं, उनमें से अधिकांश अपने मतदाताओं के लिए ही अलभ्य हो जाते हैं। इसके बरक्स गांधीजी ने लिखा था कि ‘जिसे अपने त्याग या लोकसेवक या आजीवन सेवक बनने का भान या अभिमान बराबर बना रहता है, वह लोकसेवक होते हुए भी अपनी पामरता का परिचय देता है।’
उस समय उनके आसपास ऐसे कितने ही लोग उपस्थित थे, जिन्होंने अपना सर्वस्व राष्ट्र सेवा में समर्पित कर दिया था। व्यावहारिक रूप में वे बापू की इस अपेक्षा पर खरे उतरते थे कि ‘लोकसेवक नम्रता की पराकाष्ठा दिखाए- शून्य बन कर रहे’। उसकी मिठास और नम्रता जनता और साथियों का मन जीत ले। उन्होंने विश्वासपूर्वक कहा कि ‘निस्वार्थी, नम्र, प्रामाणिक और चरित्रवान लोकसेवक जनता का प्रीतिपात्र न बना हो, ऐसा कोई अनुभव नहीं है।’
उनकी दूरदृष्टि में यह स्पष्ट था कि विकास और प्रगति के मार्ग पर देश तभी आगे बढ़ेगा, जब लोकसेवक मुख्य रूप से चयनित जनप्रतिनिधि हर स्तर पर अपनी उद्योग-परायणता तथा समय पालन का गुण श्रद्धा से अपनाएंगे और सामान्य जन के लिए अनुकरणीय उदाहरण बनेंगे। जापान आज द्वितीय विश्व-युद्ध की अपनी ध्वस्त-संसाधन की स्थित से अत्यंत सम्माननीय और समृद्ध राष्ट्र की स्थिति में केवल कठिन परिश्रम और समय के प्रति श्रद्धा तथा सदुपयोग के कारण ही पहुंचा है।
भारत ने गांधी की सीख को भुला दिया, या यों कहें कि अपनी नई पीढ़ियों को सिखा नहीं सका। आज जन सामान्य के मूल्यांकन में लोकसेवक- अपवाद छोड़ कर- अहंकार, अभिमान और असीमित संग्रहण में लिप्त व्यक्ति ही हैं। बापू की उस अपेक्षा से आज कितने चयनित प्रतिनिधि परिचित होंगे कि ‘लोक सेवक अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने की इच्छा से इस काम में प्रवृत्त नहीं हुआ है’! गांधी के देश में ही कितने लोकसेवक और चयनित प्रतिनिधि अपरिग्रह के लिए जाने-पहचाने जाते हैं?
सामान्य जन से पूछिए तो वह यही कहेगा कि सत्ता में पहुंचे जन प्रतिनिधि तो शायद- अपवाद छोड़कर- अपरिग्रह की अवधारणा से ही अपरिचित लगते हैं। आज ऐसे कितने लोकसेवक होंगे जो बापू की इस कसौटी पर खरे उतर सकें: ‘अनुभव यह है कि जिस पर विश्वास बैठ चुका है, वह लोकसेवक अपने कार्य क्षेत्र में एकाधिकारिता का उपभोग करता और जनता उसकी हर बात को मानती है। वह किसी का अप्रीति-पात्र या ईर्ष्यापात्र नहीं बनता और न किसी को त्रासदायक मालूम होता है।’
यह कैसी विडंबना है कि जनसेवा के नाम पर कितने लोग इस देश में पनपे, सामान्य जन को त्रास देकर अकूत संपत्ति के मालिक बने, और उन्हें राजनीतिक संरक्षण भी मिला। ऐसे लोगों से यह अपेक्षा करना एक अलभ्य कामना होगी कि ‘जनता की सेवा के लिए अपने धन, प्राण, परिवार, सुख-सुविधा, स्वतंत्रता आदि का त्याग करने की पहली जिम्मेदारी उसे अपने सिर पर लेनी चाहिए।’ पर, आशा की किरण यही है कि राजनीति और सत्ता से अलग रह कर कितने ही लोग लोकसेवा में संलग्न हैं। वे ही आशा के स्रोत हैं।
थामस फ्रीडमैन ने बिना सीधे कहे, नए भारत की शिक्षित युवा पीढ़ी की ग्रीन कार्ड जैसी अपेक्षाओं की सिद्धि के लिए उत्कंठा की ओर ही ध्यान नहीं दिलाया, उसने विकास की पद्धति की ओर भी इंगित किया था। तकली की बात तो देश ने स्वतंत्रता के बाद ही भुला दी, मगर आज जब कौशल अर्जन की महत्ता की ओर ध्यान देना ही पड़ रहा है, तकली के पीछे की दूरदृष्टि को समझने का प्रयास नई दिशा दिखा सकता है।
उसी से यह समझ भी बढ़ेगी कि भारत में सभी को काम देने और करने की स्थिति बनाने के लिए आवश्यक है कि परंपरागत कौशलों से तो परिचय पाया ही जाए, उनमें समयानुकूल परिवर्तन किए जाएं। व्यक्तिगत उद्यमशीलता को बढ़ाया जाए और हर व्यक्ति को भारत को समझने की आवश्यकता से परिचित कराया जाए। देश को विज्ञान, तकनीकी, उद्योग, व्यापार तो चाहिए ही, मगर इन सबको आवश्यक रूप से चाहिए गांधी, जो नैतिक आधार, संवेदना और सेवा को हर समय उजागर करता रहे।

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