बौद्धिक उत्कृष्टता का अर्थ

April 17th, 2023 / 0 comments

भारत में दर्शन और ज्ञान परंपरा, जो वैश्विक भाईचारे की अवधारणा पर विकसित हुई है, ऐसी सभी समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करने में सक्षम है। प्रारंभ शैक्षिक संस्थाओं से ही करना होगा।

– जगमोहन सिंह राजपूत

आज जब विश्व में हर तरफ ज्ञान-समाज की संकल्पना अपना व्यावहारिक स्वरूप सभी के समक्ष स्वत: ही प्रस्तुत कर रही है, और जब ज्ञान ही सभी देशों की अर्थव्यवस्था का आधार बन रहा है, तब स्वाभाविक है कि हर देश में शिक्षा के लेकर नई चुनौतियां भी उभरें। आज से तीन-चार दशक पहले तक भारत में बच्चों का स्कूल में नामांकन कराना बड़ी चुनौती थी। लड़कियों को स्कूल भेजना समाज के बड़े वर्ग को स्वीकार नहीं था। आज पालकों की सबसे बड़ी अभिलाषा है कि उनके बच्चों- लड़कियों और लड़कों दोनों को हर स्तर पर गुणवत्तापूर्ण और कौशल युक्त शिक्षा मिले।
इस दृष्टिकोण परिवर्तन को एक बड़ी राष्ट्रीय उपलब्धि के रूप में देखा जाना चाहिए। वैसे इस दलाव से एक बड़ी हानि भी हुई है। कुल पंद्रह लाख से अधिक स्कूलों में सरकारी स्कूलों की संख्या 10.8 लाख के आसपास है। इनमें से अधिकांश की साख लगातार घटी है। हालांकि कुछ सुनहरे अपवाद भी हैं, जैसे नवोदय विद्यालय, केंद्रीय विद्यालय। कुछ आशाजनक अपवाद उच्च शिक्षा संस्थानों में भी हैं, लेकिन एक सक्रिय और सतर्क ज्ञान समाज की स्थापना के लिए हर स्तर पर हर शिक्षा संस्थान की साख और स्वीकार्यता स्तरीय और पारदर्शी होनी ही चाहिए।

श्रीअरविंद के अनुसार शिक्षा में सबसे महत्त्वपूर्ण अवयव है ‘मनुष्य की समझ’! ऐसा न होने पर शिक्षा केवल सूचनाएं प्रदान करने तक सीमित हो जाती है। अगर भूले-भटके ज्ञान की प्राप्ति किसी प्रकार हो भी गई, तो उसके उपयोग की संभावना और दुरुपयोग की आशंका से परिचय आधा-अधूरा ही रह जाता है। केवल सूचनाएं या जानकारियां युवाओं को नवाचार और नए ज्ञान की खोज के लिए प्रेरित या तैयार नहीं कर सकती हैं। ऐसी शिक्षा बालक या युवा के व्यक्तित्व में बदलाव नहीं कर पाती है। परिणाम स्वरूप समाज को ही नहीं, परिवार को भी अनेक प्रकार की सामूहिक और व्यक्तिगत विकृतियों से जूझना पड़ता है।

एपीजे अब्दुल कलाम की ‘अग्नि की उड़ान’ की संकल्पना का व्यक्ति तभी शिक्षा संस्थाओं से तैयार होकर निकलेगा, जब वह जानकारी ही नहीं, ज्ञान, बुद्धि, विवेक, कौशल से संपन्न होकर तथा सेवा और तपस्या का अनुभव ले चुका और इस सबका सदुपयोग करने के लिए प्रतिबद्धता को अंतर्निहित कर चुका हो। ऐसा युवा कलाम ही नहीं, स्वामी विवेकानंद की संकल्पना का भी युवा होगा। इस स्थिति तक पहुंचाने का उत्तरदायित्व मुख्य रूप से शिक्षा व्यवस्था का ही होगा, जो पहले घर पर सीखने-सिखाने की परिवार व्यवस्था से प्रारंभ होगा, लेकिन स्कूल में आने के पश्चात मुख्य रूप से शिक्षक का ही होगा।
प्रेरणा, सहयोग और उत्साहवर्धन तो हर व्यक्ति को हर स्तर पर, हर समय चाहिए ही । संस्थाओं की साख व्यक्तियों के संस्था के लक्ष्यों के प्रति समर्पण से सीधे जुड़ती है। साख की स्वीकार्यता तो समाज से ही मिलती है और समाज को हर संस्था से उत्कृष्टता की अपेक्षा का पूरा हक है। बौद्धिक अधिरचना के भविष्योन्मुखी होने के लिए आवश्यक है कि उच्च शिक्षा तथा शोध संस्थाओं में अध्ययन, अध्यापन तथा शोध और नवाचार में वही व्यक्ति प्रविष्ट हों, जिनके मन-मानस में उत्कृष्टता प्राप्ति के लिए ज्ञान-सृजन की ज्वाला धधक रही हो! ऐसी संस्थाएं भारत में भी कार्य कर रही हैं।

स्वामी विवेकानंद और जमशेद जी टाटा की समुद्र यात्रा के दौरान हुई चर्चा से जन्मे इंडियन इंस्टीट्यूट आफ साइंस एंड रिसर्च, बंगलोर ऊपरोक्त अपेक्षाओं का साकार स्वरूप आज भी प्रदर्शित कर रहा है। कई अन्य संस्थानों का नाम भी इस श्रेणी में लिया जा सकता है। दूसरी तरफ जिन उच्च शिक्षण संस्थाओं की साख में भी कमी आई है, उनका नाम लेना अशालीन माना जा सकता है। ज्ञान-समाज की संरचना में संस्थाओं का मनोबल लगातार उच्च स्तर पर बनाए रखने की आवश्यकता अब सभी शैक्षिक संस्थानों पर लागू करनी पड़ेगी। इसका कोई विकल्प नहीं है।
वर्तमान स्थिति में यह एक अत्यंत कठिन संभावना मानी जाएगी। देश को इस उत्तरदायित्व को निभाना ही पड़ेगा, उसे प्रतिभा को विकसित करना स्कूल जाने की आयु के पहले से ही प्रारंभ करना होगा। विशिष्ट प्रतिभा और व्यक्तिगत रुचि की पहचान को सतत प्रक्रिया बनाते हुए उच्च शिक्षण संस्थानों में उत्कृष्टतम संसाधनों को उपलब्ध करा कर ज्ञान, बुद्धि और विवेक के प्रस्फुटन का वातावरण युवा प्रतिभाओं को प्रदान करना अपेक्षित है।
हालांकि कारपोरेट संस्कृति का आकर्षण अत्यंत प्रबल हो रहा है, शिक्षा संस्थानों की मूल संरचना की सार्थकता तथा उनकी साख और बौद्धिक उत्पादकता में वृद्धि की समझ रखने वाले विद्वान जानते हैं कि ऐसा तभी संभव होता है, जब वहां के अध्यापक और शोधकर्ता संस्था से संवेदनात्मक स्तर पर जुड़े हों। इसे प्राथमिक शालाओं से लेकर विश्वविद्यालयों तक परखा जा चुका है, इसे पुन: स्थापित करने के प्रयास आवश्यक हैं।

स्वामी विवेकानंद और जमशेद जी टाटा की समुद्र यात्रा के दौरान हुई चर्चा से जन्मे इंडियन इंस्टीट्यूट आफ साइंस एंड रिसर्च, बंगलोर ऊपरोक्त अपेक्षाओं का साकार स्वरूप आज भी प्रदर्शित कर रहा है। कई अन्य संस्थानों का नाम भी इस श्रेणी में लिया जा सकता है। दूसरी तरफ जिन उच्च शिक्षण संस्थाओं की साख में भी कमी आई है, उनका नाम लेना अशालीन माना जा सकता है। ज्ञान-समाज की संरचना में संस्थाओं का मनोबल लगातार उच्च स्तर पर बनाए रखने की आवश्यकता अब सभी शैक्षिक संस्थानों पर लागू करनी पड़ेगी। इसका कोई विकल्प नहीं है।
वर्तमान स्थिति में यह एक अत्यंत कठिन संभावना मानी जाएगी। देश को इस उत्तरदायित्व को निभाना ही पड़ेगा, उसे प्रतिभा को विकसित करना स्कूल जाने की आयु के पहले से ही प्रारंभ करना होगा। विशिष्ट प्रतिभा और व्यक्तिगत रुचि की पहचान को सतत प्रक्रिया बनाते हुए उच्च शिक्षण संस्थानों में उत्कृष्टतम संसाधनों को उपलब्ध करा कर ज्ञान, बुद्धि और विवेक के प्रस्फुटन का वातावरण युवा प्रतिभाओं को प्रदान करना अपेक्षित है।
हालांकि कारपोरेट संस्कृति का आकर्षण अत्यंत प्रबल हो रहा है, शिक्षा संस्थानों की मूल संरचना की सार्थकता तथा उनकी साख और बौद्धिक उत्पादकता में वृद्धि की समझ रखने वाले विद्वान जानते हैं कि ऐसा तभी संभव होता है, जब वहां के अध्यापक और शोधकर्ता संस्था से संवेदनात्मक स्तर पर जुड़े हों। इसे प्राथमिक शालाओं से लेकर विश्वविद्यालयों तक परखा जा चुका है, इसे पुन: स्थापित करने के प्रयास आवश्यक हैं।

प्राचीन भारतीय संस्कृति की पितृऋण, ऋषिऋण और देव ऋण की अद्भुत संकल्पना की समझ को अगर शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों में न केवल पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए, उसका व्यावहारिक स्वरूप भी वहां प्रशिक्षण पानेवाले को प्रतिदिन दृष्टिगोचर हो, तभी शैक्षिक संस्थाओं में उपयुक्त वातावरण परिवर्तन संभव है, और उसके परिणाम स्वरूप वहां से प्रशिक्षित होकर कार्यक्षेत्र में आने वाले युवाओं का बड़े पैमाने पर सकारात्मक दृष्टिकोण परिवर्तन संभव है। इसे एक अन्य प्रकार से भी कहा जा सकता है। मनुष्य इस समय इस पृथ्वी ग्रह पर अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष कर रहा है।
उसने अपने नैसर्गिक उतरदायित्व को पूरी तरह किनारे रख कर केवल अपने लालच और संग्रहण के लिए प्रकृति प्रदत्त संसाधनों का अनावश्यक दोहन और शोषण किया। अ दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं। हर बड़े शहर में जहरीली हवा में सांस लेने को नवजात शिशु से लेकर वयोवृद्ध तक मजबूर हैं। पानी का प्रदूषण, नदियों का समाप्त होना, जंगलों का काटा जाना, जलवायु परिवर्तन, रासायनिक खादों का मिट्टी की उत्पादकता को क्षीण करना, कितना कुछ इस श्रेणी में गिनाया जा सकता है।

भारत में दर्शन और ज्ञान परंपरा, जो वैश्विक भाईचारे की अवधारणा पर विकसित हुई है, ऐसी सभी समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करने में सक्षम है। प्रारंभ शैक्षिक संस्थाओं से ही करना होगा। मानवीय अस्तित्व को बचाए रखने के लिए आवश्यक है कि हर व्यक्ति का मनुष्यत्व के सार को मनसा वाचा कर्मणा अंतर्निहित करना। और इसका रास्ता केवल वही शिक्षक या
अध्यापक दिखा सकता है, जो आचार्यत्व की गरिमा का सार तत्त्व पूरी तरह से आचार-विचार- व्यवहार में स्वीकार कर चुका हो, जिसे आचार्य होने और लोगों का जीवन संवारने के लिए मिले अवसर का प्रतिबद्धता से सदुपयोग करने का जुनून हो ।
हर प्रकार की वैश्विक समस्याओं के त्वरित समाधान के लिए लोग प्राय: सरकारों की ओर देखते हैं। मगर यह भी सही है कि जो समस्याएं मनुष्य के अस्तित्व को पृथ्वी पर बनाए रखने में संकट उत्पन्न कर रहीं हैं, उनके समाधान के लिए त्वरित योजनाओं के साथ दीर्घकालीन रणनीति का सृजन भी आवश्यक है। इसके लिए सबसे पहले शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों तथा स्कूलों में जाना होगा, वहां सभी का मनोबल बढ़ाना होगा, उसके लिए उचित वातावरण और कार्य-संस्कृति निर्मित करनी होगी। राष्ट्र निर्माण और समाज के प्रति समर्पण की भावना जागृत हो जाने के बाद भारत के विकास, वृद्धि और प्रगति में अभूतपूर्ण बढ़ोतरी अवश्यंभावी है।

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