आदर्श का अभाव

July 10th, 2023 / 0 comments

आज के अधिकांश युवाओं के समक्ष प्रतिस्पर्धा का दबाव और जीविकोपार्जन की अनिश्चितता लगातार तनाव देती रहती है। यह स्थिति और गंभीर हो जाती है जब उसके चारों ओर के परिदृश्य में ‘स्वार्थ और स्वजन’ हर समय उसके समक्ष बाधा बनकर खड़े हो जाते हैं

– जगमोहन सिंह राजपूत

आजादी के शुरुआती दस-पंद्रह सालों में भारत के युवाओं ने जो राजनीतिक वातावरण और सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक स्थिति देखी, उसका अनुमान लगाना आज के उसी आयुवर्ग के युवाओं के लिए निश्चित ही कठिन होगा। गांधीजी भौतिक स्वरूप में दृश्य पटल से जा चुके थे, लेकिन उनकी उपस्थिति- और उनके द्वारा प्रशिक्षित व्यक्तियों और राजनेताओं की भौतिक उपस्थिति लगभग हर कार्यकलाप में, हर चर्चा, परिचर्चा और स्थान पर अनुभव की जा सकती
थी ।
छुआछूत संविधान ने अस्वीकृत कर दिया था, मगर उसे सामाजिक स्तर पर स्वीकार कर पाने में समय लग रहा था। गरीबी अत्यंत कष्टकर स्तर पर व्याप्त थी । अनेक शहरों और कस्बों में दो शब्द- रिफ्यूजी और रिफ्यूजी कालोनी – सामान्य चर्चा में आते थे, विभाजन की विभीषिका ने लोगों को भीषण कष्ट दिए थे, लेकिन उनके बीच सामान्य संबंधों को पंथ या संप्रदाय के आधार पर विकृत नहीं किया था।

यह अपने आप में अद्भुत था, और संभवत: भारत और उसकी प्राचीन संस्कृति में ही संभव हो सकता था। इसका जो मुख्य कारण सामान्य चर्चाओं में उभरता था, वह था – भारत की प्राचीन संस्कृति और जीवन पद्धति की व्यावहारिकता में घुली मिली विश्व-बंधुत्व की भावना । अंतत: सभी अपने ही माने गए। इसी कारण विभाजन लोगों के दिलों को नहीं बांट सका।
उस समय विद्यार्थियों में अधिकांश चर्चा देश के बड़े-बड़े नायकों और बलिदानियों के इर्द-गिर्द ही घूमती थी। जो सत्ता में थे, वे बापू के आदर्शों को भूले नहीं थे। सत्ता से संचय और संग्रहण के फेर में न स्वयं पड़े थे, न ही उनके परिवार उसके दलदल में घिरे थे। इनमें से सभी के जीवन की अनेक घटनाओं से लोग परिचित थे।

मसलन, जब गांधीजी चंपारण पहुंचे और वहां की स्थित देखकर वहीं रुकने का निर्णय किया, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, ब्रजकिशोर बाबू जैसे बिहार के कई नामी-गिरामी वकील उनसे जुड़े। वे अपने परिश्रम और प्रतिभा से समृद्ध हुए थे, कहीं आते-जाते थे तो उनका पूरा लाव-लश्कर साथ जाता था। उनकी रसोई अलग-अलग बनती थी। गांधी ने इन सबको सामूहिक रसोई में भागीदारी करने को तैयार किया, जो उस समय की सामाजिक अवस्था में असंभव माना जाता था।
गांधी के संपर्क में आकर इनमें अद्भुत परिवर्तन हुआ। जिसके पास अनेक मोहर्रिर, सहायक, सेवक आदि का बड़ा काफिला था, वे लोग स्वयं किसानों की शिकायतें लिखने में अपना समय लगाने लगे! गांधीजी की आत्मकथा में इसका वर्णन आज भी आंखें खोलने वाला है। छठे-सातवें दशक के युवा उस समय सत्ता में पहुंचे नेताओं के त्याग, तपस्या और समर्पण की ही चर्चा करते थे।

महाविद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों में अनुकरणीय आचरण के विद्वानों से लगभग प्रतिदिन साका पड़ता था। इन सबसे मिलने-जुलने से मानवीय मूल्यों, सामाजिक और राष्ट्रीय उत्तरदायित्वों से स्वत: परिचय हो जाता था। ऐसे लोग गांव, कस्बे, शहर में आमने-सामने दिखाई दे जाते थे। युवाओं में नेताजी सुभाषचंद्र बोस के प्रति अद्वितीय अपनत्व का भाव था। उनका नाम जोश भर देता था और आगे की चर्चा फिर भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, चंद्रशेखर आजाद, खुदीराम बोस तथा अनेक शहीदों के संबंध में बढ़ती जाती थी। इनमें सभी युवा बढ़-चढ़ कर भागीदारी चाहते थे।


कुलपतियों की प्रतिष्ठा अद्वितीय विद्वान, सदाचरण के स्तंभ के रूप में सराही जाती थी। आचार्य और कुलपति से मिल कर विद्यार्थी अपने को धन्य मानता था। इनसे संपर्क करने में कोई व्यवधान नहीं आता था। आचार्य वर्ग को श्रेष्ठता के शिखर-समूह व्यक्ति के रूप में स्वीकार किया जाना केवल प्राचीन भारत की कथाओं में वर्णित नहीं था, उसे व्यवहार में देखा जा सकता था। विश्वविद्यालय के स्तर पर कोई ट्यूशन करेगा या कोचिंग संस्थान में जाएगा, ऐसी कल्पना भी संभव नहीं थी। इसे भी महत्त्वपूर्ण माना जाना चाहिए कि मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों तथा अन्य राजनेताओं का जनमानस में अत्यंत आदर था। वह अब सब तिरोहित हो चुका है।


आज स्थिति में घनघोर बदलाव हुआ है। वर्तमान समय में नेताओं तथा चयनित प्रतिनिधियों के प्रति वह पचास-साठ वर्ष पहले वाला आदरभाव, विश्वास और श्रद्धा देख पाना असंभव हो गया है। अपवाद स्वरूप जो भी व्यक्ति राजनीति में आकर – और सत्ता में पहुंचकर – अपने कार्यकलाप केवल धन-वैभव संग्रहण और स्वजन-पोषण तक सीमित नहीं कर देता है, उसे पूर्वाग्रहों से मुक्त हर मानस अपनत्व के साथ स्वीकार कर लेता है। राजनीति में ऐसे लोग आज भी अपवाद स्वरूप उपस्थित हैं जो बहुजन सेवा को परिवार सेवा से अधिक महत्त्व देते हैं।

अगर सकारात्मक परिवर्तन होगा तो ऐसे लोगों की उपस्थिति और प्रेरणा से ही संभव होगा। सत्ता और दलगत राजनीति से हटकर अनगिनत लोग और संस्थाएं आज भी पूरी तन्मयता से जनसेवा में लगी हुई हैं, यद्यपि यहां भी प्रदूषण फैला है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। आज के युवा के समक्ष एक मुक्त आकाश खुला है चर्चा परिचर्चा के लिए।


आज के अधिकांश युवाओं के समक्ष प्रतिस्पर्धा का दबाव और जीविकोपार्जन की अनिश्चितता लगातार तनाव देती रहती है। यह स्थिति और गंभीर हो जाती है जब उसके चारों ओर के परिदृश्य में ‘स्वार्थ और स्वजन’ हर समय उसके समक्ष बाधा बनकर खड़े हो जाते हैं। आज युवा को हर समय यह आशंका बनी रहती है कि कब उसकी प्रतियोगी परीक्षा का प्रश्न-पत्र कुछ लोग बड़ी रकम देकर खरीद लें, और वह देखता रह जाए। देश के लिए यह अत्यंत चिंता का विषय होना चाहिए। सरकारी नियुक्तियों के लिए अधिकृत अधिकांश संस्थाओं की साख और स्वीकार्यता अप्रत्याशित स्तर तक घटी है।

नियुक्तियों में समय लग जाना कोई बड़ी बात नहीं रह गई है। चुनाव लोकतंत्र की वह कुंजी होनी चाहिए, जो ‘मालिक मतदाता’ को व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिए सही व्यक्ति चुनने की व्यवस्था बने, और अगर वह सर्वजन को भूलकर स्वजन तक सीमित रह जाए तो उसका विकल्प स्थापित कर सके।

आज यह संभावना इतनी लचर हो गई है कि सामान्य जन इसकी वास्तविक स्थति को समझ चुका है। उसकी अपेक्षाएं संकुचित हो गई हैं, उसका उत्साह मंद पड़ गया है। वह इतना परिपक्व अवश्य हो गया है कि वोट के महत्त्व को समझता है, वोट देता है, मगर चुनाव केंद्र से बाहर आते समय उसके चेहरे पर आशा और अपेक्षा का वह उत्साह दिखाई नहीं देता, जो उसके पुरखों के हाव-भाव में झलकता था। स्वजन और परिजन को लेकर जो दुराव लोगों और सत्ता के बीच उत्पन्न हो गया है उसे मिटाना आवश्यक है।

अकूत धन संग्रह करने वाले चयनित प्रतिनिधियों तथा सरकारी खजाने से वृत्ति पाने वाले नौकरशाहों के वर्ग से अगर भ्रष्ट आचरण समाप्त किया जा सके, तो अन्य स्तरों पर यह स्वत: ही घट जाएगा। ऐसा होने पर पारस्परिकता बढ़ेगी, जनता का व्यवस्था पर विश्वास बढ़ने लगेगा, देश के वातावरण में लोकतंत्र की सकारात्मक उपस्थिति हर ओर दिखाई देगी।
तभी हम गांधीजी के इन वाक्यों का अर्थ समझ सकेंगे: ‘अगर स्वराज का अर्थ हमें सभ्य बनाना और हमारी सभ्यता को अधिक शुद्ध और मजबूत बनाना न हो, तो वह किसी कीमत का नहीं होगा। हमारी सभ्यता का मूल तत्त्व ही यह है कि हम अपने सब कामों में, फिर वे निजी हों या सार्वजनिक, नीति के पालन को सर्वोच्च स्थान देते हैं।’ अगर इसका मन्तव्य समझ जा सकें, . तो सर्वजन कल्याण का मार्ग स्वत: ही प्रशस्त हो जाएगा।

 

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