सिमटते संसाधन

February 21st, 2023 / 0 comments

प्रकृति क्षमा नहीं करती है। मनुष्य को मस्तिष्क, वैचारिक और विश्लेषणात्मक कौशल मिला है और उससे अपेक्षा है कि वह प्रकृति से उतना ही संसाधन उपयोग में लाए, जिसकी प्रतिपूर्ति करने का उत्तरदायित्व वह निभा सके।

जगमोहन सिंह राजपूत

सिद्ध दार्शनिक, वैज्ञानिक और गणितज्ञ रेने देकार्त (1596 -1650 ) ने लिखा था कि यह सामान्य मानवीय प्रवृत्ति है कि जो मुफ्त में मिल रहा हो, उसे निस्संकोच संग्रहीत कर लिया जाए, भले ही उसकी आवश्यकता हो या न हो। लेकिन देने के समय इसका ठीक उल्टा होता है। जितना कम देने से काम चल जाए, उतना अच्छा! केवल एक चीज ऐसी है जिसे दूसरों को देने के लिए व्यक्ति सदैव तैयार रहता है, बिना मांगे भी- दूसरों को अपनी राय देना, अपने ज्ञान से प्रभावित करना! जैसे-जैसे विज्ञान के नए-नए उपकरण मनुष्य के जीवन में सुख-सुविधा लेकर आए, उनके प्रति आकर्षण और उपभोक्तावाद बढ़ा, खर्चे बढ़े, घर-परिवार की प्राथमिकताएं बदलीं, भारत में वृद्ध आश्रमों कि संख्या बढ़ने लगी।

बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अकूत लाभांश प्राप्त करने और मानव जीवन को प्रभावित करने के लिए नए-नए तरीके निकाले। इसका प्रभाव हर स्तर पर नैतिक मूल्यों और मानवीय संवेदनाओं पर पड़ना ही था। 1950 के बाद के सात दशकों में हुए परिवर्तन को भारत की प्रौढ़ पीढ़ी ने गांधी के जीवन-मूल्यों के वृहद फैलाव से लेकर उनके लगभग पूरी तरह भुला दिए जाने तक देखा है। शायद इसी कारण पंक्ति के अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति की ओर साधन-संसाधन-संपन्न वर्ग का ध्यान नहीं जा रहा है। सामान्य नागरिक बाजारवाद में केवल उपभोक्ता है और इससे बचने का उपाय नहीं है।

अपरिग्रह, जो गांधी दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण अंश था, आज भी अत्यंत अपेक्षित मानवीय मूल्य के रूप सामान्यत: सभी की जानकारी में तो होता है, लेकिन ऐसे लोग कम ही मिलते है जो उसे व्यवहारिक जीवन में उतार सकें। भौतिक सुविधाओं और संसाधनों का अधिक से अधिक संग्रह करने के लिए मानवीय मन को हर प्रकार और हर तरफ से प्रभावित करने का प्रयास बाजार बड़े ही संगठित ढंग से लगातार कर रहा है।

वैसे यह तो व्यापार की सामान्य प्रवृत्ति मानी जानी चाहिए कि वह ग्राहक को अपनी ओर आकर्षित करे। अंतर केवल यह आया है कि अधिकाधिक संग्रहण की लालसा में अनेक ज्ञात कारणों से डरावनी तेजी आई है और उसके परिणामस्वरूप अनावश्यक संग्रहण की तरफ आकर्षित होनेवालों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। परिणाम भी सामने आ रहे हैं।

प्राकृतिक संसाधनों का अनावश्यक, अनैतिक और अस्वीकार्य दोहन प्रकृति पर मनुष्य का ही अमानवीय प्रहार है। उत्तराखंड में जमीन धंस रही है, उसके कारणों में वहां के प्राकृतिक संसाधनों के दोहन और शोषण को कोई भी नकार नहीं पाएगा। प्रकृति क्षमा नहीं करती है। मनुष्य को मस्तिष्क, वैचारिक और विश्लेषणात्मक कौशल मिला है। उससे अपेक्षा है कि वह प्रकृति से उतना ही संसाधन उपयोग में लाए, जिसकी प्रतिपूर्ति करने का उत्तरदायित्व वह निभा सके।

अनियंत्रित लालच, अधिक धनवान और वैभवशाली होने की लालसा ने उसे ऐसा करने से रोका है। इसी कारण गरीब-अमीर के बीच खाई लगातार बढ़ रही है। आंकड़ें हैं कि विश्व की 1.1 फीसद आबादी के पास विश्व कि आधी संपत्ति का मालिकाना हक है, जबकि पचपन फीसद आबादी के पास केवल 1.3 फीसद। एक अनुमान है कि लगभग पचासी धनाढ्य परिवार करीब आधी वैश्विक धन-संपत्ति के मालिक हैं।

बीसवीं सदी की सबसे बड़ी उपलब्धि इसी सोच की सार्वभौमिक स्वीकार्यता थी कि प्राकृतिक संसाधनों पर सभी का समान अधीकार है। लेकिन विकास की जो अवधारणा अपनाई गई, उसके परिणामस्वरूप पिछले पचास सालों मे पर्यावरण प्रदूषण, बढ़ते तापमान, जलवायु परिवर्तन, जहरीली हवा में सांस लेने की निरीहता, कार्बन उत्सर्जन, जैसी कितनी ही जटिल समस्याएं उभरी हैं।

स्थिति का अनुमान संयुक्त राष्ट्र के महासचिव अंतोनियो गुतारेस के उस वक्तव्य से लगाया जा सकता है, जिसमें उन्होंने कहा था, ‘असीमित और असंतुलित आर्थिक संपन्नता और विकास की अनियंत्रित दौड़ में मनुष्यता खुद ही अपने विनाश का यंत्र बन गया है’।

दरअसल, इस समय की सबसे बड़ी और कठिन समस्या प्रकृति के साथ अपने संबंधों को फिर नैसर्गिक स्वरूप में लाने की है। लालच, वैभव-प्रदर्शन और उसके लिए अकूत संग्रहण मनुष्य के जीवन पर सदा से अपना प्रभाव डालते रहे, लेकिन समाज का समेकित और स्वीकार्य मार्गदर्शन उसे किसी भी अति से बचाता रहा है। भारत की सभ्यता में पशु-पक्षियों, पेड़-पौधों, नदी-पहाड़ों को देवत्व प्रदान किया गया है। आज भी किसान और अन्य परिवार जन इसका ध्यान रखते हैं कि उनके आसपास के पशु-पक्षियों को खाने-पीने की कमी न हो।

निश्चित ही मनुष्य की समझ बढ़ी है, विज्ञान बढ़ा है, लेकिन इसी के साथ परंपरागत ज्ञान की वैज्ञानिकता से लोग विमुख होते गए हैं। अगर ऐसा नहीं हुआ होता तो चीन जैसा देश गौरैया को अनाज का दुश्मन क्यों मान लेता है? दलील सिर्फ यह कि वे खेतों में अनाज का नुकसान करती थीं। नतीजा- कीड़े-मकोड़े और विशेषकर टिड्डियां बढ़ीं, जिनका सफाया गौरैया करती थी, और फसलें नष्ट हो गई।

अनुमान के मुताबिक चीन में तीन करोड़ के करीब लोग 1958-62 के अकाल में भूख से मरे। चीन ने केवल गौरैया को ही निशाना नहीं बनाया, उस अभियान में मच्छर, चूहे और कीट भी शामिल थे। आज यह सभी की समझ में आ गया है कि पृथ्वी पर जीवन के बचे रहने के लिए कीट भी उतने ही आवश्यक हैं, जितना हवा, पानी और भोजन। जंगलों का कटना, प्रदूषण, कृत्रिम रोशनी, जलवायु परिवर्तन आदि के कारण प्रतिवर्ष दो फीसद कीट कम हो रहे हैं।

कम लोग ही यह जानते होंगे कि कीट लगभग पचहत्तर फीसद फसलों का परागण करते हैं। ज्ञान की अधूरी समझ और जानकारी कितनी भयानक त्रासदी उत्पन्न कर सकती है, चीन का गौरैया विनाश हिरोशिमा-नागासाकी के बाद का सबसे भयावह उदाहरण है।

मनुष्य के समक्ष जो अत्यंत भीषण स्थिति उत्पन्न हुई है, उसका समाधान भी मनुष्य को ही निकालना है। क्या कोई यह अनुमान लगा सकता है कि मानव पर्यावरण पर 5-16 जून, 1972 में स्टाकहोम में आयोजित सम्मेलन के बाद कितने अन्य वैश्विक सम्मेलन हो चुके हैं? कभी जलवायु संकट पर चर्चा होती है तो अन्य अवसरों पर जल प्रदूषण, वायु प्रदुषण, बढ़ते तापमान, खाद्य संकट, कार्बन उत्सर्जन, जैविक विविधता के ह्रास जैसे विषय इन सम्मेलनों में चर्चित होते हैं।

दूसरी तरफ परमाणु निरस्त्रीकरण और आणविक हथियारों के जखीरे घटाने जैसे विषय भी चर्चित होते रहते हैं। स्पष्ट है कि समस्याएं केवल मनुष्य और प्रकृति के संबंधों की डोर टूटनें तक सीमित नहीं हैं। मनुष्य-मनुष्य के बीच के संबंधों में अविश्वास लगातार बढ़ रहा है, जिसने असुरक्षा की अत्यंत चिंताजनक स्थिति उत्पन्न कर दी है।

हिंसा, आतंकवाद, युद्ध, पलायन और असुरक्षा हर ओर अपना नकारात्मक प्रभाव डाल रहे हैं। इस स्थिति को बदलने के लिए अत्यंत सघन प्रयासों की आवश्यकता होगी। भारत को प्रकृति और मानवता के प्रति अपना परंपरागत उत्तरदायित्व निभाने का यह कठिन अवसर उपस्थित हुआ है। इसमें सभ्य समाज की भूमिका सरकारों से कहीं अधिक होगी। उसे हर स्तर तक पहुंचाना होगा। पहले कदम के रूप में प्रारंभ अध्यापकों से हो सकता है, क्योंकि वे आज भी समाज में सबसे अधिक सम्मानित वर्ग बने हुए हैं। आवश्यक है कि वे इसे पहचानें।

Share This:

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *